Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम्
ऐसा जान पड़ता है कि इस छंद की शर्त सिर्फ वर्णों की तत्तत् चरण में नियत संख्या और अंत में '5' है, जो 'घनाक्षरी' की तरह ही हैं । संभवतः इस छन्द को गानेवाला गुरु तथा लघु का स्पष्ट उच्चारण न कर हर अक्षर को एक ही मात्रिक काल देकर गाता हो । इस तरह की गानपद्धति संगीतज्ञो के यहाँ प्रचलित रही है। गंधाण छन्द इन्हीं की देन हो । मजे की बात तो यह है कि प्राकृतपैंगलम् में मुक्तक कोटि 'गंधाण' छन्द का तो उल्लेख है, पर मध्ययुगीन हिंदी काव्य परम्परा के अतिप्रसिद्ध छन्द घनाक्षरी का नामोनिशान तक नहीं है। प्राकृतपैंगलम् के संग्रहकाल के बाद घनाक्षरी का विकास ठीक उसी पद्धति पर हुआ है, जिस पद्धति पर प्राकृतपैंगलम् के कुछ ही दिनों पहले 'गंधाण' का विकास हुआ है । मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरंपरा में गंधाण छंद सर्वथा अप्रचलित रहा है ।
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पर पिछले दिनों पद्माकर के पौत्र गदाधर ने इस छंद का लक्षणोदाहरण अपनी 'छंदोमंजरी' में अवश्य निबद्ध किया है । इनका लक्षण सारी समस्या सुलझा देता है । इनके अनुसार इसके प्रत्येक चरण में २४ मात्रायें होती हैं, तथा ये मात्रायें विषम चरणों में १७ और सम चरणों में १८ वर्णों में व्यवस्थित होती हैं। प्रथम - तृतीय चरण में १२, १२ पर यति और द्वितीय - चतुर्थ में ११, १३ पर यति पाई जाती है। इस तरह 'गंधाण' छंद काव्य या रोला का ही भेद-विशेष सिद्ध होता है । उनके उदाहरण में प्राकृतपैंगलम् तथा भिखारीदास की तरह पादांत में 'गुरु' (S) की व्यवस्था भी नहीं है ।
राम राम कृष्णचंद्र, राधिका विनोद करन प्रीतिपात्ररूप सब, जन हेतु भूमि कौ धरन ।
दीनबंधु श्रीश ईश, दास कै कलेशहरन, दास कौ निहाल अब कीजिये सु तारनतरन ॥ (छंदोमंजरी पृ० ९३)
इस संकेत से 'गंधाण' की सारी समस्या भी सुलझ जाती है। प्राकृतपैंगलम् में गंधाण का उल्लेख ठीक रोला
छंद के बाद किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि प्राकृतपैंगलम् का संग्राहक इसका संकेत करना चाहता था कि रोला का ही एक विशिष्ट भेद 'गंधाण' हैं। इसकी पुष्टि दामोदर के 'वाणीभूषण' से भी होती है, जो प्राकृतपैंगलम् की पद्धति का ही अनुसरण करते हुए 'गंधानक' का उल्लेख ठीक रोला के बाद ही करते हैं। उनका उदाहरण निम्न है
गर्जति जलधरः परिनृत्यति शिखिनिवहो, नीपवनीमवधूय वहति दक्षिणगंधवहः ।
दूरे दयितः कथय सखि किमिह हि करवै, प्रज्वालय दहनं झटिति शलभमनुकरवै । ( वाणीभूषण १.६२ )
इससे यह जान पड़ता है कि व्याकरणिक दृष्टि से किसी भी पद में कितनी ही मात्रा क्यों न हो, यह छंद २४
मात्रा के चरणों में अष्टमात्रिक ताल में गाया जाता रहा होगा। कुशल गायक २४ से कम चरण को २४ मात्रा का प्रस्तार देकर गाता होगा और २४ से अधिक मात्रा के चरण में कुछ वर्णों को त्वरित गति से पढ़कर एक मात्रा बना लेता होगा । गगनांग
$ १८४. गगनांग छन्द २५ मात्राओं वाली समचतुष्पदी है, जिसमें हर चरण में २५ मात्राएँ इस तरह नियोजित की जाती हैं कि वे ५ गुरु और १५ लघु अक्षरों ( २० वर्णों) में व्यवस्थित होती हैं। इसके प्रत्येक चरण का प्रथम गण चतुर्मात्रिक होना चाहिए और प्रत्येक पादांत में 'हीर' की तरह ही 15 होना चाहिए। प्राकृतपैंगलम् के उदाहरण के तृतीय चरण में इस गणव्यवस्था की पूरी पाबंदी नहीं मिलतो । पंक्ति यों है :
'खुरासाण खुहिअ रण महँ लंघिअ मुहिअ साअरा'
इसमें मात्रायें बिलकुल ठीक है । यदि इसके स्थान पर हमारे संपादित पाठ की पादटिप्पणी में A हस्तलेख के पाठांतर 'खुरसाण' को ले लें तो चतुर्मात्रिक की योजना तो हो जायगी, किंतु एक मात्रा कम पडेगी और 'खुरसाण खुहिअ
१. प्रथम तृतिय पद मैं बरन सत्रह कल चौबीस । दूजै चौथे अष्ट दस बरन कला चौबीस ॥
प्रथम तृतीय पद मैं गनौ बारह पै विश्राम । दूजै चौथे शिव (११) त्रिदश (१३) गंधन है अभिराम ॥
२. वाणीभूषण १.६१
३. मिलाइये - 'वण्णो वि तुरिअपढिओ दोत्तिणि वि एक्क जाणेहु || (प्रा० पै० १.८)
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४. पअ पअ ठवहु जाणि गअणंगउ मत्त विहूसिणा, भाअउ बीस कलअ सरअग्गल लहु गुरुसेसिणा ।
पढमहि मत्त चारि गण किज्जहु गणह पआसिओ, बीसक्खर सअल पअह पिअ गुरु अंत पआसिओ ॥ प्रा० पैं० १. १४९ ५. दे० प्राकृतपैंगलम् (सम्पादित अंश) पृ० १३२
छंदोमंजरी पृ० ९२-९३
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