Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् उदाहरणपद्य में आभ्यंतर तुक का पूरा निर्वाह है। गुजराती छन्दोग्रन्थ 'दलपतपिंगल' के अनुसार यह छन्द चतुर्मात्रिक ताल में गाया जाता है और पहली ताल तीसरी मात्रा पर पड़ती है। इसका संकेत 'बृहत् पिंगल' में भी मिलता है, जहाँ 'ताल' के स्थान का संकेत करते हुए इसकी गणव्यवस्था यों दी गई है :
दा दादा दादा' दादा दादा' दादा दादा दादा गा.
इस दृष्टि से पद्मावती छन्द की तालव्यवस्था, यतिव्यवस्था और मात्रासंख्या वक्ष्यमाण 'लीलावती' छंद के ही समान है । फर्क यह है कि पद्मावती में जगणरहित ८ चतुर्मात्रिक गणों की रचना की जाती है, और पादांत में केवल '5' का विधान है; लीलावती के चतुर्मात्रिक गणों में 'जगण' की रचना की जा सकती है और अन्त में 'सगण' (IIs) का होना परमावश्यक है। मरहट्ठा छंद की 'पद्मावती' के साथ तुलना करने पर पता चलेगा कि 'पद्मावती' में अन्तिम यति खंड 'दादा दादा दादा गा' (१४ मात्रा) है, जब कि मरहट्टा के अन्तिम यतिखंड में इससे तीन मात्रा कम, 'दादा दादा गाल' (११ मात्रा), होती हैं। वक्ष्यमाण त्रिभंगी और पद्मावती में यह भेद है कि यहाँ यतिव्यवस्था १०, ८, १४ है, जब कि मात्रिक त्रिभंगी में यह ८, ८, ८, ६ पर पाई जाती है । दण्डकल, दुर्मिला और जलहरण भी पद्मावती की तरह प्रतिचरण ३२ मात्रा वाले सममात्रिक चतुष्पदी छन्द हैं। इनमें दण्डकल और दुर्मिला दोनों में यतिव्यवस्था १०, ८, १४ पर ही है। दुर्मिला की यतिव्यवस्था का स्पष्ट उल्लेख प्राकृतपैंगलम् के लक्षणपद्यों में मिलता है, और दण्डकल के लक्षणोदाहरण पद्यों में १०, ८, १४ पर यति के स्थान पर आभ्यंतर तुक (यमक) का प्रयोग हुआ है। इनका 'पद्मावती' से यह भेद है कि इनकी मात्रिक गणव्यवस्था सर्वथा भिन्न है। जलहरण छन्द की प्रथम ३० मात्रायें लघ्वक्षरों के द्वारा निबद्ध की जाती है और इस तरह यह छन्द ३१ वर्ण वाला (दण्डक) छन्द बन जाता है; इसकी यतिव्यवस्था भी पद्मावती से भिन्न है :१०, ८, ६, ८ । मात्रिक त्रिभंगी के अंतिम दो यतिखंडों के परिवर्तन से जलहरण की यतिव्यवस्था बन जाती है । उक्त विवेचन से पता चलता है कि ये भी ३२ मात्रा वाले छन्द के ही विविध प्ररोह हैं, "जिनमें गणव्यवस्था, यतिव्यवस्था, पादांत अक्षरव्यवस्था आदि के भेद से अलग अलग तरह की गति, लय और गूंज उत्पन्न हो जाती है। फलतः इन्हें वैज्ञानिक दृष्टि से अलग अलग मानना ठीक ही जान पड़ता है।
हिंदी काव्य-परंपरा में इस छंद का सर्वप्रथम प्रयोग 'कीर्तिलता' में मिलता है। कीर्तिलता में १०, ८, १४ पर यति, यति-खंडों के स्थान पर तुक और अंत में 'मगण' (555) की व्यवस्था मिलती है।
'लोअह सम्मदे, बहु विरहद्दे, अम्बर मंडल पूरीआ, आवंत तुरुक्का, षाण मुलुक्का, पअ भरे पथर चूरीआ । दुरुहुँते आआ, वड वड राआ, दवलि दोआरहीं चारीआ,
चाहते छाहर, आवहि बाहर, गालिम गणए ण पारीआ ॥ उक्त उद्धत छंद नागरी प्रचारिणी सभा के संस्करण के अनुसार है। छंद की दृष्टि से उक्त पाठ अशुद्ध जान पड़ता है। 'पअ भरे पथर' के स्थान पर पाठ 'पअ भर पत्थर' होना चाहिए, क्योंकि 'भरे' में 'ए' ध्वनि के कारण प्रथम चतुर्मात्रिक गण त्रुटित हो जाता है। इसी तरह 'दोआरहीं' के स्थान पर पाठ 'दाआरहिं' होगा और 'गणए ण' के स्थान पर 'गणए ण'; तभी छंद की गति ठीक बैठेगी।
जैन कवि राजमल्ल के 'छंदशास्त्र', केशवदास की 'छंदमाला' और 'रामचंद्रिका' दोनों जगह यह छन्द मिलता है। केशव का लक्षण कुछ भिन्न है, वे यतिव्यवस्था १०, ८, १४ पर न मानकर १८, १४ पर मानते हैं, पर उदाहरणपद्यों में सर्वत्र यति १०, ८, १४ पर पाई जाती है और दसवीं तथा अठारहवीं मात्राओं के स्थान पर तुक (यमक) की व्यवस्था भी मिलती है। १. प्रा० पैं० १.१९६-१९७ २. प्रा० ५० १.१८० में 'भग्गंता-लग्गंता', "सरवरु-परिकरु' आदि । ३. कीर्तिलता (द्वितीय पल्लव) पृ० ४६ ४. हिंदी जैन साहित्य पृ० २३६ ५. मत्त अठारह विरम करि पुनि चौदह परमान । प्रतिपद केवल बत्तिसै पदमावती बखान ॥ छंदमाला २.३८
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