Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
५७७ द्विगुणित प्रयोग भी पाया जाता है।
२८ मात्रा वाली इस द्विपदी का प्रयोग संभवत: हिंदी में कम पाया जाता है। वैसे भिखारीदास के छन्दार्णव में यह छन्द मौजूद है । वहाँ इसका नाम 'द्विपदी' या 'दुवई' न मिलकर 'दोवै' मिलता है । भिखारीदास ने इस छन्द में गणव्यवस्था का कोई निर्देश नहीं किया है। वे केवल अनियमित वर्णवाली २८ मात्राओं का होना जरूरी मानते हैं । भिखारीदास के उदाहरण में द्वितीय तथा षष्ठगणों की व्यवस्था यों है :
द्वितीय गण; - ०७, - .. (त्रुटित), ---,-- - (त्रुटित) षष्ठगण; - - - (त्रुटित), - - - - -(त्रुटित), ७-.
इसके प्रथम षण्मात्रिक गण में भी प्रत्येक चरण में क्रमश: ...... ..... - (त्रुटित षण्मात्रिक), ---, .४४४ - हैं । यहाँ स्पष्टतः मात्रिक गणों की परंपरागत व्यवस्था नहीं पाई जाती तथा षण्मात्रिक और चतुर्मात्रिक गणों की आरंभिक या अंतिम मात्रा को गत या आगत गण की मात्रा के साथ जोड़कर त्रुटित रूप में गुर्वक्षर का प्रयोग किया गया है, जो छंदःशास्त्रीय दृष्टि से दोष है। ऐसा जान पड़ता है कि मात्रिक गणों की यह व्यवस्था मध्यकालीन हिंदी कविता में गड़बड़ा गई है, इसकी पूरी पाबन्दी नहीं पाई जाती । इसका खास कारण यह है कि ये छंद जो मूलतः गेय छन्द हैं, असंगीतज्ञ कवियों के हाथों पड़कर केवल पाठ्य छन्द बन बैठे हैं । भिखारीदास के लक्षण में १६वीं मात्रा पर यति का भी कोई उल्लेख नहीं है, किंतु उदाहरण पद्य में १६ वी मात्रा पर नियत यति अवश्य पाई जाती है। भिखारीदास के उक्त विश्लेषित 'दोवै' का उदाहरण निम्न है :
तुम बिछुरत गोपिन के अँसुवन ब्रज बहि चले पनारे । कछु दिन गएँ पनारे तें वै उमड़ि चले ज्यों नारे ॥ वै नारे नदरूप भए अब कही जाइ कोइ जोवै । सुनि यह बात अजोग जोग की है है समुद्र नदी वै ।।
(छन्दार्णव ५.२२१) । गदाधर की 'छन्दोमंजरी' में इसे 'दुवैया' कहा गया है। गदाधर ने अपने लक्षण में गणव्यवस्था का संकेत न करते हुए भी १६ (कला) तथा १२ (रवि) पर यति का संकेत किया है। खञ्जा (खञ्जक छंद)
१६५. 'खंजक' नामक छन्द सर्वप्रथम विरहाङ्क के 'वृत्तजातिसमुच्चय' में मिलता है, किन्तु यह 'खंजक' हेमचन्द्र तथा प्राकृतपैंगलम् वाले हमारे 'खंजक' से भिन्न है । विरहाङ्क का 'खंजक' छंद अर्धसम छंद है, जिसके विषम चरणों की मात्रागण व्यवस्था ४ + ---, तथा समचरणों की मात्रागण व्यवस्था ४+४+--- है। इस तरह इसके विषम चरणों में ९ मात्रा तथा सम चरणों में ११ मात्रा पाई जाती है। यह गणव्यवस्था ड० वेलणकर के मतानुसार है । हेमचन्द्र के यहाँ 'खञ्जक' किसी खास छंद की संज्ञा न होकर उन 'गलितक' प्रकरण के सभी छंदों की संज्ञा है, जहाँ पादाँत में 'यमक' के स्थान पर केवल अनुप्रास (तुक) पाया जाता है। वहाँ खञ्जक की गणव्यवस्था निम्न है।
३ + ३ + ४ + ४ + ४ + ३ + - =२३ मात्रा प्रत्येक चरण.३ ।।
हेमचन्द्र के बाद 'खंजा' का संकेत प्रा० पैं० में ही मिलता है । रत्नशेखर के 'छन्द:कोश' में इसका जिक्र भी नहीं मिलता। किन्तु प्रा० पैं० वाला खंजा हेमचन्द्र के 'खंजा' छंद से सर्वथा भिन्न है। प्रा० पैं० में निर्दिष्ट खंजा में प्रत्येक चरण में ४१ मात्रायें पाई जाती हैं तथा यह मूलतः द्विपदी कोटि का छंद जान पड़ता है। इसकी गणव्यवस्था भिन्न है :
९ x.. ~ ~ +रगण (-~-)
आरंभ में ३६ लघु अर्थात् नौ सर्वलघु चतुष्कल तथा अंत में रगण की योजना इसका लक्षण माना गया है। डा० वेलणकर ने इसका किसी पुराने छंद से संबंध नहीं जोड़ा है। संभवतः यह छंद ४० मात्रा या उससे अधिक वाली १. होत दुवैया छंद के प्रतिपद अट्ठाईस ।
कला कला पै यति सु पुनि रवि पै कहत फनीस ॥ - छन्दोमंजरी पृ० ९८ । २. पूर्वकाण्येव गलितकानि यमकरहितानि सानुप्रासानि यदि भवन्ति तदा खञ्जकसंज्ञानि ।
- छन्दोनुशासन सूत्र ४.४१ की वृत्ति पृ० ४३. ३. त्रिमाणगणद्वयं चतुर्मात्रत्रयं त्रिमात्रो गुरुश्चायमकं सानुप्रासं खञ्जकम् । - वही पृ० ४३.
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For Private & Personalee अनियम बरन नरिंदगति दोवै कह्यौ फनिंद । - छन्दार्णव ५.
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