Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text
________________
अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
५९७ पाये जाते हैं। वस्तुतः चौपाइयों के अंत में 'जगण' (151) का विधान निषिद्ध है, फलतः चौपाइयों में 'पादाकुलक' और 'अरिल्ल' के खंड तो मिल जाते हैं, पद्धरी के नहीं । अडिल्ला (अरिल्ल)
६ १७८. अडिल्ला भी पादाकुलक और पद्धड़िया की तरह ही षोडशमात्रिक सम चतुष्पदी छंद है । प्रा० पैं० के अनुसार उक्त दोनों छन्दों से इसमें यह भेद है कि पादाकुलक के पादांत में 'दो गुरु' (55) होते हैं, पद्धडिया के पादांत में 'जगण' (151); किंतु अडिल्ला के पादांत में 'दो लघु' (I) होना जरूरी है। इससे यह स्पष्ट है कि अडिल्ला के पादांत में अंतिम चतुष्कल या तो 'भगण' (5॥) हो सकता है, या 'सर्वलघु चतुष्कल' (1) । दूसरी विशेषता यह है कि 'अडिल्ला' में पादाकुलक की तरह 'जगण' का सर्वथा वारण किया जाता है। तीसरे, इसके चरणों में दो स्थानों में, विषमसम चरणों में 'यमक' (तुक) की व्यवस्था की जानी चाहिए ।' जगण-निषेध को ध्यान में रखते हुए अडिल्ला को 'पादाकुलक' का ही भेद माना जा सकता है, किंतु स्वयंभू और हेमचन्द्र इसे 'वदनक' का भेद कहते हैं । अडिल्ला का सबसे पहला उल्लेख करने वाले स्वयंभू ही हैं। इनके मतानुसार अडिल्ला षोडशमात्रिक सम चतुष्पदी छन्द वदनक का वह भेद है, जिसके चारों चरणों में यमक की व्यवस्था पाई जाती है। 'यमक' व्यवस्था चारों चरणों में न होकर दो चरणों में ही पाये जाने पर इस वदनक-भेद को दूसरे नाम से पुकारते हैं । यह भेद 'मडिल्ला' है ।२ हेमचन्द्र ने दोनों तरह के भेदों को 'अडिल्ला' (अडिला) ही माना है। इस प्रसंग के आरंभ में हेमचन्द्र ‘वदनक' और 'उपवदनक' इन दो सम चतुष्पदियों का जिक्र करते हैं। वदनक षोडशमात्रिक छन्द (गणव्यवस्था-छचचद) है, उपवदनक सप्तदशमात्रिक छन्द (गणव्यवस्था-छचचत)। ये दोनों छन्द जब चारों चरणों में 'यमकित' (यमक अलंकार से युक्त) होते हैं, तो इन्हीं छन्दों को 'अडिला' कहा जाता है। इस संबंध में हेमचन्द्र के 'यमक' का पारिभाषिक अर्थ समझ लेना जरूरी होगा । हेमचंद्र 'यमक' का प्रयोग 'अनुप्रास या तुक' से सर्वथा भिन्न अर्थ में करते हैं । उनके यहाँ इसका अर्थ ठीक वही है, जो अलंकारशास्त्र में 'यमक अलंकार' का । इस प्रकार उसी 'वदनक' या 'उपवदनक' को हेमचन्द्र 'अडिल्ला' कहते हैं, जहाँ चारों चरणों या दो दो चरणों के अन्त में सर्वथा भिन्नार्थबोधक स्वरव्यञ्जनसमूह (यमक) का प्रयोग किया गया हो। आगे चलकर अपभ्रंश कवियों के यहाँ 'यमक' का प्रयोग केवल 'तुक' के अर्थ में चल पड़ा है, इसका संकेत हम 'तुक' का विवेचन करते समय कर आये हैं। हेमचन्द्र के निम्न उदाहरण से यह स्पष्ट है, जहाँ प्रत्येक चरण में 'सारंगहँ' पद भिन्न भिन्न अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, तथा तुक के स्थान पर 'यमकालंकार' का प्रयोग मिलता है :
नवघणभमभमंतसारंगहँ । कुंजकुसुमगुंजिरसारंगहँ ।
सुहविलसंतअडिलसारंगहँ । लीलावणहँ तरुणि सारं गहँ ॥ (छन्दोनु० ५.३९ पद्य) (हे तरुणि, जहाँ नवीन बादलों के भ्रम से चातक (सारंग) घूम रहे हैं, जहाँ कुंज के फूलों पर भौरे (सारंग) गूंज रहे हैं, और सुख से हाथी (सारंग) घूम रहे हैं, ऐसे वन के सार को तुम ग्रहण करो (सारं गहँ)।)
हेमचन्द्र चारों चरणों में यमक होने पर और दो-दो चरणों में यमक होने पर नाम-भेद के पक्ष में नहीं हैं । वे दोनों दशाओं में 'अडिला' ही कहना पसंद करते हैं, किंतु उन्होंने इस बात का संकेत किया है कि कुछ अपभ्रंश छन्दःशास्त्री चारों चरणों के अंत में 'यमक' होने पर इसे 'मडिला' कहते हैं । इससे यह संकेत मिलता है कि हेमचन्द्र के समय दूसरे लोग दो दो चरणों में भिन्न भिन्न 'यमक' होने पर (वदनकोपवदन को) अडिला पुकारते थे, चारों चरणों में एक ही 'यमक' व्यवस्था होने पर मडिला । हेमचंद्र का यह उल्लेख स्वयंभू के उल्लेख से बिलकुल उलटा है, जो दो-दो चरणों
१. सोलह मत्ता पाउ अलिल्लह । बे वि जमक्का भेउ अडिल्लह ॥
हो ण पओहर किं पि अलिल्लह । अन्त सुपिअ भण छंदु अडिल्लह ॥ प्रा० पैं० १.१२७ २. वअणअन्तजमिआ अ मडिल्ला (४.२९), मडिला चउपअजमिआ अडिल्ला (४.३२) । - स्वयंभूच्छन्दस् ३. छंदोनुशासन ५.२८-२९ ।। ४. ते यमितेऽन्तेऽडिला । ते वदनकोपवदनके चतुर्णां पादानां द्वयोर्द्वयोर्वान्ते यमकिते सत्यडिला । छन्दोनुशासन ५.३० ५. दे० अनुशीलन $ १३७
६. चतुर्णां यमके मडिलेत्यन्ये । - छन्दोनु० ५.३० सूत्र की वृत्ति Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org