Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 621
________________ ५९६ प्राकृतपैंगलम् १२. नंदिनी १६ (४ सगण) वृत्तजाति० (३.२०) १३. भित्तक १६ (३ भगण, 55) वृत्तजाति० ४.५५). १४. प्रथम विलासिनी १६ (२ त्रिकल, चतुष्कल, २. त्रिकल) हेम० (४.५२). १५. द्वितीय विलासिनी १६ (५, ५, जगण, 5) वृत्तजाति० (४.१५) १६. परिनंदित १६ (रंगण, नगण, भगण, 55) वृत्तजाति० (४.१९). १७. भूषणा १६ (५, ५, ३, ३ पादांत में यमक का प्रयोग) हेम० (४.२९) १८. विभूषणा १६ (२, जगण, तगण, रगण) वृत्तजाति० (४.९४) १९. घत्ता १६ (४ भगण) स्वयंभू (८.२८) २०. अडिला. १६ (चारों चरणों में केवल एक यमक) स्वयंभू (४.२९), हेम० (५.३०), राज० (५.२०) प्रा० पैं० (१.१२७), छंदःकोश (४१) । २१. मडिला. १६ (चारों चरणों में दो यमक) स्वयंभू (४.२९), हेम० (५.३०), राज० (५.२०), छंद:कोश (४१). २२. बाणासिका. १६ (४+४) वृत्तजाति० (४.१७). २३. पादाकुलक. १६ (गणव्यवस्था नहीं, स्वयंभू के अनुसार ६, ४, ६) स्वयंभू (६.१६०), राज० (५.१७१), प्रा० पैं० (१.१२९), २४. सिंहावलोक १६ (४ चतुष्कल, या तो सगण या सर्वलघु) प्रा० पैं० (१.१८३) २५. मालती. १६ (लघु, त्रिकल तथा पंचकल का प्रयोग, चतुष्कल निषिद्ध) छन्द:कोश (४९). इन छंदों में अनेक केवल नामभेद से एक दिखाई पड़ेंगे । वृत्तजातिसमुच्चय का 'नंदिनी' प्राकृतपैंगलम् के सिंहावलोक से अभिन्न है। दूसरी और मात्रासम, विश्लोक, चित्रा, वानवासिका, उपचित्रा और बाणासिका का, जिनमें सभी में चार चतुष्कल प्रयुक्त होते हैं, परस्पर स्पष्ट अंतर नहीं मालूम पड़ता । अप्सरा और चंद्रिका की गणव्यवस्था । बिलकुल एक है, भेद सिर्फ इतना है कि पहले छन्द में तृतीय गण नियमतः जगण होगा, दूसरे में कोई भी चतुष्कल गण हो सकता है। इस प्रकार अप्सरा छन्द वस्तुत: चंद्रिका छन्द का ही एक विशष्ट भेद है। . तो, पज्झटिका, पद्धडिया या पद्धरी षोडशमात्रिक प्रस्तार के उपर्युक्त छन्दों में अपभ्रंश कवियों का बड़ा लाडला छंद रहा है । दोहा अपभ्रंश मुक्तक काव्य का प्रिय छन्द था, तो पद्धरी (पद्धडिया) अपभ्रंश प्रबंध काव्य का । वैसे इसका प्रयोग बौद्ध सिद्धों की फुटकल कविताओं में ओर उनके चर्यापदों के रूप में भी मिलता है और यह परंपरा मध्ययुगीन हिंदी कविता में आ गई है। एक और यह परंपरा सूफी कवियों के प्रबंध काव्यों की चौपाईयों में देखी जा सकती है। दूसरी ओर यह परम्परा कबीर आदि संतों की रमैनियों और कतिपय पदों में भी मिलती है। किंतु जिस तरह 'पादाकुलक' छन्द चौपाई में खप गया है, वैसे ही कवियों के यहाँ पद्धडिया भी चौपाई में ही विलीन हो गई है। शास्त्रीय परंपरा की गतानुगतिकता का पालन करने वाले कवियों (जैसे केशवदास) और छन्दों का विवेचन करने वाले लेखकों के यहाँ जरूर पज्झटिका (पद्धरी) का स्वतंत्र अस्तित्व किसी तरह सुरक्षित रहा है। दामोदर के 'वाणीभूषण' में 'पज्झटिका' की 'चार चतुष्कल' योजना और जगणांतता की पाबंदी का संकेत मिलता है। केशवदास की 'छंदमाला' का लक्षण भी प्राकृतपैंगलम् के ही अनुसार है, और भिखारीदास के यहाँ भी कोई विशेष उल्लेखनीय बात नहीं मिलती। जायसी और गोस्वामी तुलसीदास के यहाँ जगणांत चौपाइयाँ नहीं मिलती। जायसी की अधिकांश चौपाइयों के अंत में '55' (द्विगुरु) पाये जाते हैं । तुलसी की चौपाइयों में भी अधिक संख्या '55' (द्विगुरु) अंत वाले छन्दों की ही है, किंतु वहाँ 'भगण' (1) 'सर्वलघु चतुष्कल' () और 'सगण' (15) भी अंतिम चतुष्कल के रूप में निबद्ध १. वाणीभूषण १.७१ २. प्रथम चतुष्कल तीनि करि एक जगन दै अंत । इहि बिधि पद्धटिका करहु 'केसव' कवि बुधिवंत ॥ - छंदमाला २.३४. ३. सोरह सोरह चहुँ चरन, जगण एक दै अंत । छंद होत यों पद्धरिय, कह्यो नाग भगवंत ।। - छंदार्णव ५.१५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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