Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
६०१ उक्त उदाहरण को लाला भगवानदीन ने केशव की अपनी ईजाद माना है और वर्णिक वृत्त कहा है, किन्तु यह वर्णिक वृत्त न होकर मात्रिक छंद है। जहाँ तक केशव की गणव्यवस्था का प्रश्न है, चार चरणों का अन्तिम चतुष्कल गण नियत रूप में 'सगण' है, किन्तु बाकी चतुर्मात्रिक टुकडों में छै: सर्वलघु चतुष्कल हैं, चार सगणात्मक और दो (छि नारि, 'मचंद्र) जगणात्मक । प्राकृतपैंगलम् और वाणीभूषण के अनुसार यहाँ जगणव्यवस्था ठीक नहीं है। संभवतः केशव के समय तक हिंदी कवि 'जगण' का वारण जरूरी नहीं समझते होंगे। केशवग्रंथावली खंड २ के परिशिष्ट में प्रतापगढ वाले हस्तलेख के आधार पर दिये गये इस छन्द के लक्षण में 'जगण' के वारण का कोई संकेत नहीं है। इतना ही नहीं, वहाँ तो इसके चारों चतुष्कल गणों को सगणात्मक निबद्ध करने का विधान है, जो इस बात का संकेत करता है कि केशवदास के समय 'सिंहावलोकित' का मूल मात्रिक रूप पूर्णतः सुरक्षित है, किंतु बाद में इसके प्रत्येक चरण में चार सगण निबद्ध कर इसे पूर्णतः द्वादशाक्षर (षोडशमात्रिक) छंद बना दिया गया है। ऐसा करने पर 'सिंहावलोकित'
और वर्णिक छंद त्रोटक' (त्रोटकमब्धिसकारयुतं) में कोई भेद नहीं रह जायगा। मध्ययुगीन हिंदी कवियों और छन्दोग्रन्थकारों ने भी इस तरह अनेक विविध प्रकृति के मात्रिक और वर्णिक छंदों में घालमेल उपस्थित कर दिया है। श्रीधर कवि के 'छंदविनोद' में इसका यही लक्षण मिलता है, जो 'तोटक' (त्रोटक) से अभिन्न है। किंतु उनके उदाहरण में स्पष्ट भेद है। हम उन्हीं के दोनों छंदों के उदाहरण लेकर तुलना कर सकते हैं।
'मुनि आ- | श्रम सो- । भ धस्यो । तियहाँ अहि कच- । सँग बे- । सरि मो- । र जहाँ । जह दा- । स अहित । मति सक- । ल कटी, कर सिं- । हविलो- । कित गति । करटी ॥ (सिंहविलोकित छंद) सगना । रचि चा- | रि बिचा- । रि जहाँ सब सो- । रह म- । त्त प्रमा- । न तहीँ । पग बा- । रह अच् । च्छर जा- | हि लहो,
तहिँ को । कवि तो- | टक छं- । द कहो ॥ (तोटक छंद. ३.६१) उपर्युक्त 'सिंहविलोकित' के उदाहरण में प्रथम चरण पूरी तरह 'तोटक' छंद का है, किंतु शेष तीन चरणों में उसे 'तोटक' से भिन्न रखा गया है, तथा इसके लिये कुछ स्थानों पर सर्वलघु चतुष्कल की भी योजना की गई है, अंतिम गण सर्वत्र सगणात्मक है। इससे यह स्पष्ट है कि इस छन्द के लक्षण भाग में 'चारि सगण कै दुज चरण" का अर्थ करते समय 'चारि' को 'सगण' का विशेषण नहीं माना जा सकता । ऐसा करने पर यह छन्द एक तो 'तोटक' से अभिन्न हो जायगा, दूसरे इसके उदाहरणों में लक्षण की व्याप्ति न हो सकेगी । फलतः अर्थ यों करना होगा - 'इस छंद के प्रत्येक चरण में चार (चतुष्कल मात्रिक) गण होंगे, ये या तो सगण हों या द्विज (सर्वलघुचतुष्कल)२' । भिखारीदास का लक्षण श्रीधर कवि के ही अनुसार है तथा वे उदाहरण भी ठीक वही देते हैं; वे इस छन्द का जिक्र सप्तम तरंग में जातिछन्दों के प्रसंग में करते हैं। प्लवंगम
$ १८०. प्लवंगम छंद सममात्रिक चतुष्पदी है, जिसके प्रत्येक चरण में २१ मात्रा होती हैं। इन मात्राओं की गणव्यवस्था 'छ छ छ त' (६, ६, ६, ३) है। अंतिम त्रिकलगण लघु-गुरु (15) रूप होता है। इस प्रकार प्लवंगम में आरंभ में गुरु और अंत में गुरु और उसके ठीक पूर्व लघु होना परमावश्यक है। प्राकृतपैंगलम् में बताया है कि इस
१. चारि सगन कै द्विज चरन, सिंहविलोकित येहु ।
अंत आदि कै चरन मैं मुक्तक पद ग्रसि देहु ॥ - केशवग्रंथावली खण्ड २ पृ. ४२२ २. चारि सगन कै दुज चरन, सिंहविलोकत एहु.।।
चरन अंत अरु आदि के, मुक्त (क) पद ग्रस देहु ॥ - छंदविनोद २.२० पृ. ६१ ३. छंदार्णव ७.३५-३६
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