Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 603
________________ ५७८ प्राकृतपैंगलम् 'मालाधर' प्रकार की द्विपदी कोटि का ही छंद है। हेमचन्द्र तथा स्वयंभू ने ४० तथा उससे अधिक मात्रा वाली द्विपदियों को अलग अलग न लेकर उन्हें 'मालाधर' की सामान्य संज्ञा दी है। जैसा कि स्पष्ट है, 'खंजा' या 'खंजक' उस द्विपदी छंद की सामान्य संज्ञा दी है। जैसा कि स्पष्ट है, 'खंजा' या 'खंजक' उस द्विपदी छंद की सामान्य संज्ञा थी, जिसके अन्त में 'यमक' न पाया जाकर 'तुक' पाई जाती है। आगे चलकर यह सामान्य संज्ञा खास प्रकार के ४१ मात्रा वाले अयमक सानुप्रास द्विपदी छंद के लिये चल पड़ी, जिसमें गणों की निश्चित व्यवस्था भी पाई जाती है । प्रा० पैं० को यही परंपरा प्राप्त हुई है, जो अन्यत्र कहीं देखने में नहीं आती । हिंदी छन्दःशास्त्रियों ने खंजा का ठीक वही रूप लिया है, जो प्रा० पैं० की मानते हुए भी लक्षण में फर्क कर दिया है। उनके मत से खंजा की व्यवस्था ७ x ~~ + जगण (0 - ) + - है, जो ठीक उक्त व्यवस्था का भिन्न क्रम से निर्देश है। भिखारीदास ने इसका उदाहरण यह दिया है। सुमुखि तुअ नयन लखि दह गहउ झखनि झखि गरल मिसि भँवर निसि गिलत नितहि कंज है । निमि तजउ सुरतियनि मृग फिरत वनहि बन हुअ हरुअ मदन-सर थिर न रहत खंज है ।। खंजा नामक एक छंद वर्णिक वर्ग के अनुष्टुप् भेदों में भी देखा जाता है, जहाँ इसकी वर्णिक व्यवस्था (गा गा गा गालल गागा) है, किंतु इन दोनों छंदों में नाम-साम्य के अतिरिक्त और कोई संबंध नहीं है। मात्रिक खंजा छंद का 'दलपतपिंगल', 'रणपिंगल', 'बृहत् पिंगल' आदि गुजराती छन्दःशास्त्रीय ग्रंथों में कोई संकेत नही मिलता । गदाधर की 'छन्दोमंजरी' में 'खंजा' नामक मात्रिक वृत्त मिलता तो है, पर वह प्रा० पैं० तथा भिखारीदास के 'खंजा' से बिलकुल मेल नहीं खाता । उसके अनुसार शिखा छंद के प्रथम चरण में २८ लघु + १ गुरु (३० मात्रा) तथा द्वितीय चरण में ३० लघु + १ गुरु (३२ मात्रा) होते हैं । इसे उलटने पर 'खंजा' छंद होता है। गदाधर के मतानुसार खंजा छन्द की व्यवस्था यह है :- प्रथम दल ३० लघु + १ गुरु (३२ मात्रा); द्वितीय दल २८ लघु + १ गुरु (३० मात्रा) । स्पष्ट है, यह 'खंजा' बिलकुल निराला है और किसी भिन्न परंपरा का ही संकेत करता है। हमारे खंजा छन्द में मात्रिक गणों के बीच यति कहाँ होगी, इसका विधान कहीं नहीं मिलता । मेरा ऐसा अनुमान है, दो दो पंचकलों या दस दस मात्रा के बाद यहाँ यति पाई जाती है। इसकी यतिव्यवस्था यों जान पड़ती है। संभवतः यही कारण है कि यह एक यति खंड को दो दो पंचकलों में विभक्त कर खंजा का लक्षण भी तदनुसार ही निबद्ध किया जाने लगा हो तथा प्रा० पैं० के बाद प्रचलित यही 'सात' सर्वलघु पंचकल + जगण + गुरु वाली व्यवस्था भिखारीदास को मिली है। प्रा० पैं० के उदाहरण (१.१६०) तथा उपर्युक्त भिखारीदास के उदाहरण को देखते हुए भी १०, १०, १०, ११ की यति की कल्पना करना असंगत नहीं जान पड़ता । शिखा छंद १६६. प्रा० पैं० का शिखा या शिक्षा छंद विषम द्विपदी है, जिसके प्रथम दल में अट्ठाइस मात्रा पाई जाती है, द्वितीय दल में बत्तीस । गणव्यवस्था निम्न है : प्रथम दल ६ x०.४० + --- (जगण) (६ सर्वलघु चतुष्कल + ज) द्वितीय दल ७ x.४४० + --- (जगण) (७ सर्वलघु चतुष्कल + ज) यह छंद ठीक इसी रूप में अन्यत्र कहीं नहीं मिलता । स्वयंभू, हेमचन्द्र, रत्नशेखर, किसी ने इस छंद का संकेत नहीं किया है। डा० वेलणकर ने इस छन्द को १. एआणं अहिअअरं मालाधरअं भणन्ति कइ वसहा । - स्वयम्भूच्छन्दस् ६.२०३ २. सात पंच लघु जगन गो मत्ता यकतालीस । यां ही करि दल दूसरो, खंजा रच्यो फनीस ।। - छन्दार्णव ८.१४ ३. दे० - बृहतपिंगल पृ० १११.। ४. शिखाछंद उलटा पढो खंजा छंद सरूप । याहीं तें यह होत है खंजा छंद अनूप ॥ - छंदोमंजरी पृ. ७९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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