Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम्
भी अष्टमात्रिक समचतुष्पदी का संकेत नहीं करते। वहाँ ध्रुवक (नवमात्रिक, प च), शशांकवदना (दशमात्रिक, च च द), मारकृति (एकादशमात्रिक च पद) आदि इससे बड़ी चतुष्पदियों का जिक्र जरूर मिलता है। स्वयंभू के छन्दः शास्त्र में अष्टमात्रिक सम द्विपदी का उल्लेख अवश्य मिलता है, जो दो चतुष्कल गणों में निबद्ध की जाती है। इसका नाम वे 'मअरभुआ' (मकरभुजा) (अष्टमात्रिक च च ) देते है ।१ यही 'मकरभुजा' द्विपदी विकसित होकर पिछले दिनों चतुष्पदी 'मधुभार' के रूप में विकसित हो गई है और इसके दूसरे चतुष्कल को नियमतः मध्यगुरु जगण नियत कर दिया गया
है ।
मध्ययुगीन हिंदी कविता को 'मधुभार' की यही परम्परा मिली है, जहाँ अन्त में 51 की व्यवस्था तथा दो चतुष्कल गणों की योजना मिलती है । विद्यापति की 'कीर्तिलता' के चतुर्थ पल्लव में 'मधुभार' छंद का प्रयोग मिलता है, जिसके अंत में 'जगण' (151) व्यवस्था का नियत विधान है।
अणवरत हाथि, मयसन्त जाथि । भाग गाछ, चाप तोरंते बोल, मारते घोल संगाम धेष, भूमिट्ट मेघ ॥ अन्धार कूट, दिगविजय छूट गमरीर गव्व देखन्त भव्व ॥
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(कीर्तिलता पृ० ८२)
"
में मिलता है।
लक्षण में केशव 'जगण' का उल्लेख नहीं
करते पर दूसरे लेखक श्रीधर कवि इसका स्पष्ट उल्लेख करते हैं। भिखारीदास के 'छन्दार्णव' में यह अष्टमात्रिक प्रस्तार के छन्दों में वर्णित है। इसका कोई लक्षण नहीं दिया गया है, वहाँ केवल उदाहरणपद्य मिलता है, जिसमें अंतिम चतुष्कल स्पष्ट ही जगण है ।
बाद में इस छंद का उल्लेख केशवदास की 'छंदमाला'
दक्षिनसमीर अतिकृस समीर
हुअ मंद भाइ, मधुभार पाइ ॥ ( छंदार्णव ५.५७)
हिंदी के लक्ष्य पद्यों को देखने से पता चलता है कि जगणव्यवस्था की सर्वत्र पूरी पाबन्दी नहीं मिलती। केशवदास की ‘रामचंद्रिका' में यह छन्द कई बार प्रयुक्त हुआ है, पर वहाँ कुछ सदोष उदाहरण मिलेंगे, जिनमें प्रथम और द्वितीय चतुष्कल संयुक्त कर दिये गये हैं। नमूने के लिये निम्न पद्य ले सकते हैं
:
तजिकै रारि । रिस चित्त मारि ॥
दसकंठ आनि धनु छुयो पानि ॥ (रामचंद्रिका ४.२४)
इस छन्द के चौथे चरण में 'छ्यो' के 'यो' में चौथी और पाँचवीं मात्राओं को संयुक्त कर दो चतुष्कल व्यवस्था गड़बड़ा दी गई है।
दीपक
$ १७३. प्राकृतपैंगलम् में वर्णित दूसरा समचतुष्पदी मात्रिक छंद 'दीपक' है । यह १० मात्राओं की समचतुष्पदी है, जिसके अन्त में 'मधुभार' की ही तरह 5 होता है। प्राकृतपैंगलम् में उल्लेख है कि इसके चरण में 'चतुर्मात्रिक पंचमात्रिक + लघु' (१० मात्रा) की व्यवस्था होती है, किंतु प्रथम एवं द्वितीय गणों की प्रकृति के विषय कोई बंधन नहीं है, वे किसी भी प्रकार के हो सकते हैं। यह छंद पाँच पाँच मात्रा की ताल में गाया जाता रहा है, इसका संकेत गुजराती छंदोग्रंथों में मिलता है। 'दलपतपिंगल' में बताया है कि इसके गाने में पहली दो मात्रा छोड़कर तीसरी मात्रा से ताल देना शुरु किया जाता है, और दूसरी ताल आठवीं मात्रा पर पड़ती हैं। चतुष्कल गण को पंचकल के साथ संयुक्त न कर दिया जाय, इसलिये इसकी पाँचवीं मात्रा सदा लध्वक्षर द्वारा निबद्ध की जाती है ।
१. स्वयम्भूच्छंदस् ७.७
२. चारि मत्त के दोइ गन छंद गनौ मधुभार ।
चौहूँ पद बत्तीस कल छंदहु कोटि विचार ||
छंदमाला २.४३
३. कल आठ संत, करि जगन अन्त ।
एहि भाँति देहु मधुभार एहु ॥ छंदविनोदपिंगल २.२९.
४. छन्दोनुशासन ६.२२ ३१.
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काछ ॥
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