Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 580
________________ संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दः शास्त्र ५५५ छंदों का समूह पाया जाता है।" मिश्र छंद अपभ्रंश छंद: परंपरा की खास विशेषता है, तथा यहाँ हम यथावसर इसका विवेचन करेंगे। कविदर्पणकार ने द्विपदी प्रकरण में केवल तीन प्रकार की द्विपदियों का ही जिक किया है। उल्लाला), कर्पूर (२८ मात्रा वाला उद्याला) तथा मुत्तियदाम (मौक्तिकदाम) (३२ मात्रा १२, ८, कविदर्पणकार का लक्ष्य अत्यधिक प्रयोग में आनेवाले तथा उस समय कवियों के द्वारा प्रायः व्यवहत छन्दः प्रकारों का ही विवेचन करना है। कविदर्पणकार का दृष्टिकोण व्यावहारिक अधिक है, हेमचन्द्र की भाँति सर्वथा शास्त्रीय नहीं, जिन्होंने अपने समय प्रचलित - अप्रचलित, सभी तरह के प्रसिद्ध- अप्रसिद्ध, अतीत और वर्तमान अपभ्रंश छन्दः प्रकारों का विवरण उपस्थित किया है । चतुष्पदी प्रकरण में सर्वप्रथम गाथा के विविध प्रकारों, गीति, उपगीति आदि आर्या वर्ग (गाथा वर्ग) के प्राकृतछन्दों का विस्तार से विवरण है। इसके बाद अर्धसम चतुष्पदियों में पंचाननललित (विषम १२ मात्रा सम १० मात्रा) मलयमारुत (विषम ९ मात्रा, सम १० मात्रा), दोहक (दोहा) (विषम १३, सम ११) तथा उसके विविध भेदों तथा मागधिका (विषम १४ मात्रा, सम १६ मात्रा) का विवरण मिलता है। दोहक प्रकरण में कविदर्पणकार ने इसके अन्य पाँच प्रकारों का भी वर्णन किया है । कुंकुम (२७ मात्रावाला १० पर यति । वस्तुतः अवदोहक (प्रा० ० का सोरङ), (विषम ११, सम १३ मात्रा); उपदोहक (विषम १२ मात्रा सम ११ मात्रा), संदोहक (छन्दः कोश का उद्गाथक; विषम १५ मात्रा, सम ११ मात्रा), उदोहक (विषम सम १३ मात्रा, सम चतुष्पाद), चूडालदोहक (छन्दः कोश तथा प्रा. पैं० का चूलिका छन्द; विषम १३ मात्रा सम १४ मात्रा) । हेमचन्द्र ने इन अर्धसम चतुष्पदियों में से प्रथम तीन को अन्तरसमा चतुष्पदी घत्ता में लिया है। वैसे हेमचन्द्र का दोहा कविदर्पण, छन्द: कोश तथा प्रा० पै० के दोहालक्षण से पूरी तरह नहीं मिलता। वहीं विषम चरणों में १४ तथा सम चरणों में १२ मात्रा पाई जाती हैं। किंतु यह भेद विशेष महत्त्वपूर्ण इसलिये नहीं जान पड़ता कि हेमचन्द्र पदांत ह्रस्व को द्विमाजिक गिनते जान पड़ते हैं । कविदर्पणकार के समय से ही उसे एकमात्रिक गिनने की परम्परा दोहे में चल पड़ी जान पड़ती है, जो प्रा० पैं० में भी है तथा मध्यकालीन हिंदी साहित्य में भी इसी रूप में विकसित हुई है। 'कविदर्पण' ही पहला ग्रन्थ है, जिसमें दोहे का विस्तार से वर्णन मिलता है। हेमचन्द्र ने विशेष महत्त्व 'मात्रा' छंद को दिया है, जब कि कविदर्पण, छंद: कोश तथा प्रा० पै० में 'मात्रा' छंद गौण बन गया है। वस्तुतः हेमचन्द्र के समय से ही अपभ्रंश साहित्य में दोहे का महत्त्व बढ़ने लग गया था तथा हेमचन्द्र के बाद यह अपभ्रंश तथा पुरानी हिंदी का प्रधान छंद बन बैठा । 'मागधिका' छंद मूलतः वैतालीय वर्ग का मात्रिक छंद है तथा इसका प्रयोग 'मागधी भाषा' में करने पर यह छंद 'मागधिका' कहलाता था । 'मागधिका' का उल्लेख हेमचन्द्र ने संस्कृत वृत्त प्रकरण में किया है, तथा चतुष्पदी घत्ता प्रकरण में भी 'वसन्तलेखा' के नाम से इसका संकेत किया है। इसके बाद ११ सममात्रिक षोडशमात्रिक चतुष्पदियों का विवरण हैं। इनमें प्रत्येक वृत्त भिन्न है, क्योंकि उनमें विविध मात्रिक गणों का उपादान पाया जाता है। इस सम्बन्ध में इतना संकेत कर देना आवश्यक होगा कि प्रत्येक मात्रागण १. एकारसजाईओ मत्ताच्छंदे हुवंति एयाओ । बिचउसरछमुणिवसुनवदसहररविसोलसपइ ति ॥ (२.१) | २. कदुगं टो कदुगलहू कदुगं टो कदुगदुलहुणो दोसु । पाए कुंकुमो, तह कप्पूरो एगलघुबुढो || पन्नरसकलाहिं जई, उल्लालयत्ति बंदीण । तं मुत्तियदामं जत्थ अनु य बारस जई ॥ (२.२-३) ३. समे द्वादश ओजे चतुर्दश दोहकः । यथा पिअहु पहारिण इकिनवि सहि दो हया पर्हति ॥ संनद्धओ असवारभडु । अनु तुरंगु न भंति ॥ (हेम० छन्दो० ६.१००) ४. ओजे चतुर्दश सम षोडश वसन्तलेखा । यथाकुविदो मयणो महाभझे वणलच्छी अ वसंतरेहिआ । कह जीवउ मामि विरहिणी । मिउमलयानिलफंसमोहिआ || (छन्दोनुशासन ६.५४ ) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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