Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 594
________________ प्राकृतपैंगलम् के छन्दों का अनुशीलन ५६९ इससे स्पष्ट है कि दूसरा 'कमल' छन्द प्राकृतपैंगलम् में वस्तुतः ‘रतिपद' (या मदनक) है, जिसे संभवतः गलती से 'कमल' नाम दे दिया गया है, किंतु शेष दोनों छन्द कवियों के यहाँ क्रमशः 'सारंगिका' और 'सारंगी' इन दो नामों से पुकारे जाते हैं । प्रथम छन्द का नाम स्वार्थे क-प्रत्यय युक्त है, द्वितीय इस प्रत्यय से रहित है । प्राकृत 'पैंगलम् में दोनों को 'सारंगिका' कहा गया है, जो नामसाम्य के कारण हो गया है । प्राकृतपैगलम् के उपर्युक्त वर्णिक छन्दों में दो चार छंद ऐसे हैं, जो मूलतः मात्रिक छन्द हैं, किंतु परवर्ती अपभ्रंश के कवियों में उनका विकास इस तरह का हो गया है कि प्रत्येक चरण में मात्राओं के साथ साथ वर्णिक गणों की व्यवस्था भी एक सी निबद्ध की जाने लगी है। फलतः ये छन्द समवर्णिक छंद बन गये हैं। वैसे तो समकोटि के सभी संस्कृत वर्णिक छंदों में हर चरण में वर्णिक गणसंख्या और गणरचना समान होने के कारण स्वतः मात्राएँ बराबर हो ही जाती है और उन्हें मात्रिक छंदों के प्रस्तार में मजे से बिठाया जा सकता है। ऐसी चेष्टा हिंदी के रीतिकालीन आचार्य भिखारीदास के 'छंदार्णव' के पंचम तरंग में मिलती है, जहाँ संस्कृत के मूल वर्णिक छंदों को भी अनेक मात्रिक छन्दों के साथ एक मात्रा से लेकर बत्तीस मात्रा प्रस्तार के छंदों में भी स्थान दिया है। यहाँ हमारा तात्पर्य तो केवल उन छंदों से है, जो मूलतः अपभ्रंश के मात्रिक तालच्छंद है, किंतु प्राकृतपैंगलम् में वर्णिक छंदों के साथ निरूपित किये गये हैं। स्पष्टतः ऐसे छंदों में चर्चरी, गीता, सुन्दरी, दुर्मिला, किरीट और त्रिभंगी हैं। इनमें सुन्दरी, दुर्मिला और किरीट मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा के वर्णिक सवैया हैं। इनके विलास के सम्बन्ध में स्वतंत्र रूप से आगामी पृष्ठो में विचार किया जायगा ।' गीता वस्तुतः 'हरिगीता' (२८ मात्रा वाले छंद) का ही २० वर्ण वाला भेद है, इसका विवेचन हम 'हरिगीता' के साथ तुलना करते हुए करेंगे । वर्णिक त्रिभंगी भी वस्तुतः ४२ मात्रा वाला (३४ अक्षर का) दण्डक छन्द है तथा इसका निरूपण मात्रिक त्रिभंगी के सम्बन्ध में द्रष्टव्य है, जहाँ तुलनार्थ इसका विवेचन किया जा रहा है । चर्चरी अवशिष्ट वर्णिक छंद है, जिसे हम उक्त छंदों की तरह की मूलतः मात्रिक छंद मानते हैं । प्राकृतपैंगलम् के अनुसार इस छंद की वणिक गणव्यवस्था र स ज ज भ र' है। इस प्रकार यह १८ वर्णों का २६ मात्रा प्रस्तार का छंद है। इसकी मात्रिक गण व्यवस्था हम यों मान सकते हैं :- 'पंचकल+४ चतुष्कल+पंचकल' । मध्य के दोनों चतुष्कल 'पयोधर' (151, जगण) होते हैं। पाद के आदि में 'गुरु' (5) और पादांत में 'लघु गुरु' (IS) की व्यवस्था पाई जाती है । यह छंद 'हरिगीतिका' की तरह क्रमश: तीन, चार, तीन, चार मात्रा के तालखंडों में गाया जाता है । इसकी समता हम २६ मात्रिक 'हरिगीत' से कर सकते हैं, जिसकी उत्थापनिका इसकी वर्णिक गणव्यवस्था में बिलकुल मिलती है। इस छंद का 'चर्चरी' नाम भी इस बात का संकेत करता है कि यह मूलतः 'चर्चरी' नृत्य के साथ गाया जाने वाला छंद है। 'चर्चरी' वस्तुतः 'चर्चरी' नृत्य के साथ साथे गाये जाने मात्रिक तालच्छंद की सामान्य संज्ञा है। यही कारण है कि विक्रमोर्वशीय में ऐसी कई चर्चरीगीतियाँ मिलती हैं, जो इस छन्द से समानता नहीं रखती। जिनदत्त सूरि ने पिछले दिनों 'चाँचरि' में जिस छन्द का प्रयोग किया है, वह प्रस्तुत 'चर्चरी' न होकर 'प्लवंगम' के वजन का २१ मात्रा का छन्द है। वस्तुतः जिस प्रकार अपभ्रंश 'रासक' छन्द भी अनेक तरह का था और यह 'रास' नृत्य से संबद्ध होने के कारण अनेक छन्दों की सामान्य संज्ञा हो गई थी, वैसे ही आरंभ में 'चर्चरी' भी छन्दों की सामान्य संज्ञा थी। धीरे धीरे भट्ट कवियों के यहाँ यह नाम केवल १८ वर्ण वाली विशेष वर्णिक गणप्रक्रिया के २६ मात्रिक छन्द के अर्थ में सीमित हो गया । प्राकृतपैंगलम् और मात्रिक छंद प्राकृतपैंगलम् का विशेष महत्त्व मात्रिक विवेचन की दृष्टि से है। यहीं हमें कुछ ऐसे छंदों का सबसे पहले पता चलता है, जो मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा में काफी प्रचलित मिलते हैं । मात्रिक छन्दों का विवेचन करते समय प्राकृतपैंगलम् के संग्राहक ने केवल उन्हीं को चुना है, जो भट्ट कवियों के यहाँ प्रयुक्त होते रहे हैं और इस दृष्टि से यहाँ महज ४५ मात्रिक छंदों का लक्षणोदाहरण मिलता है । प्राकृतपैंगलम् के संग्राहक का दृष्टिकोण स्वयंभू और हेमचन्द्र की भाँति सभी मात्राप्रस्तारों के यावत् छन्दों की उद्धरणी देना न होकर केवल प्रायोगिक दृष्टिकोण है। यही कारण है यहाँ १. दे० अनुशीलन $ २०३ ३. दे० अनुशीलन $ १९३ Jain Education International २. दे० अनुशीलन $ १८५ ४. प्राकृतपैंगलम् २. १८४-१८५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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