Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 593
________________ ५६८ प्राकृतपैंगलम् (र ज र ज र ल), (८५) ब्रह्मरूपक (म म म म म गा). अत्यष्टि वर्ग :- (८६) पृथ्वी (ज स ज स य ल गा), (८७) मालाधर (न स ज स य ल गा). धृति वर्ग :- (८८) मंजीरा (म म भ म स म), (८९) क्रीडाचन्द्र (य य य य य य), (९०) चर्चरी (र स ज ज भ र). अतिधृति वर्ग :- (९१) शार्दूलसडक (म स ज स त त गा), (९२) शार्दूलविक्रीडित (शार्दूलसट्टक से अभिन्न है). (९३) चन्द्रमाला ( न न न ज न न ल), (९४) धवला (न न न न न न गा), (९५) शंभु (स त य भ म म गा). कृति वर्ग :- (९६) स्रग्धरा (स ज ज भ र स ल गा), (९७) गंडका (र ज र ज र ज गा ल). प्रकृति वर्ग :- (९८) स्रग्धरा (म र भ न य य य, ७-७-७), (९९) नरेंद्र (भ र न न ज ज य). आकृति वर्ग : (१००) हंसी (म म त न न न स गा). विकृति वर्ग :- (१०१) सुंदरी (स स भ स त ज ज ल गा). संस्कृति वर्ग :- (१०२) दुर्मिला (स स स स स स स स), (१०३) किरीट (भ भ भ भ भ भ भ भ). दण्डक वर्ग :- (१०४) शालूर (त न न न न न न न न ल गा), (१०५) त्रिभंगी (न न न न न न स स भ म स गा). उपर्युक्त १०५ छंदों में 'बंधु' तथा 'दोधक' नामक दोनों छंदों का लक्षण एक ही (भ भ भ गा) है, जो एक ही छंद का दो बार वर्णन है। इसी तरह ३७ वाँ अष्टवर्णिक छंद और ४१ वाँ नववर्णिक छंद दोनों एक ही संज्ञा 'कमल' से अमिहित किये गये हैं, साथ ही नववणिक ३९ वाँ छंद और पंचदशवणिक ७६ वाँ छंद दोनों को 'सारंगिका' नाम दिया गया है। यह इस बात का संकेत करता जान पड़ता है कि भट्ट छंदः परंपरा में दो भिन्न प्रकृति के छंदों को भी कभी एक ही नाम से पुकारा जाता रहा है। इस संबंध में पिछली परंपरा में इन चार विवादग्रस्त वर्णिक छंदों के नामकरण क्या मिलते हैं, इसका संकेत करना आवश्यक होगा । संस्कृत के पिंगलसूत्र में इन छंदों का कोई संकेत नहीं मिलता | हिंदी के मध्ययुगीन छन्दोग्रन्थों में केशवदास की 'छन्दमाला' में ये चारों छन्द नहीं हैं । भिखारीदास ने इनका संकेत अवश्य किया है, किंतु वहाँ इनका वर्णन पंचम तरंग में मात्रा-प्रस्तार के छंदों में किया गया है, वणिक छंदों के प्रकरण में नहीं । 'न स ल गा' वाले छन्द को भिखारीदास ने प्राकृतपैंगलम् की ही तरह 'कमल' कहा है, लेकिन 'न न स' वाले नवाक्षर छंद को, जो पहले की भाँति ही ग्यारह मात्राओं का छंद है, वे 'रतिपद' छंद कहते हैं। इन दोनों छन्दों का जिक्र संस्कृत के परवर्ती छन्दोग्रन्थ श्रीदुःखभंजन कवि रचित 'वाग्वल्लभ' में भी मिलता है, जहाँ प्रथम को 'कमल' और 'लसदसु' और द्वितीय को 'रतिपद' और 'मदनक' इन दो दो नामों से पुकारा गया है । 'न य स वाले छन्द को जिसे प्राकृतपैंगलम् में सारंगिका कहा गया है, भिखारीदास भी द्वादशमात्रिक छंदों के प्रकरण में 'सारंगिका' (सारंगिय) ही कहते हैं और वाग्वल्लभकार ने इसका दूसरा नाम 'मुखला' भी संकेतित किया है। 'म म म म म' संघटना वाली सारंगिका वाग्वल्लभ में नहीं मिलती, न इस संघटना वाला कोई छंद ही दूसरे नाम से भी मिलता है । भिखारीदाप्त ने इसे तीस मात्रावाले छन्दों में अवश्य स्थान दिया है। वे इसका निम्न उदाहरण देते हैं और इसे 'सारंगी' छंद कहते हैं । देखो रे देखो रे कान्हा देखादेखी धायो जू कालिंदी मैं कूद्यो कालीनागै नाथ्यो ल्यायो जू । नच्चें बाला नच्चैं ग्वाला नच्चैं कान्हा के संगी बज्जै भेरी नीदंगी तंबूरा चंगी सारंगी ॥ (छन्दार्णध ५-२२६) १. दे० छंदार्णव ५-७०, ५.७२ २. लसदसु नसौ लगौ । ... कमलमपि नामास्य । - वाग्वल्लभ पृ० १३२ मदनकमिति ननसम् । ... रतिपदमिति नामान्तरमस्य । -- वही पृ० १४४ ३. छन्दार्णव ५.८८ ४. नयसगणा: स्यान्मुखला... सारंगिकेति नामांतरमस्य ज्ञेयम् । - वाग्वल्लभ पृ० १४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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