Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःशास्त्र
५६३ ग्रंथ विशाल योजना को लेकर लिखा गया है। उनकी विवेचन प्रणाली शास्त्रीय अधिक है, वे प्रचलित-अप्रचलित सभी तरह के छन्दों का निरूपण करते हैं। 'छन्दार्णव' १५ तरंगों में विभाजित ग्रंथ है, जिसके आरंभिक चार तरंगों में गुरुलघुकथन, मात्रिक एवं वर्णिक गणों का विवेचन और छन्दों के नष्ट, उद्दिष्ट, मेरु, मर्कटी, पताका आदि के द्वारा विविध प्रस्तारों का निरूपण है। पंचम तरंग में एक से लेकर ३२ मात्रा तक के विविध छन्दों का निरूपण है, छठे में मात्रा मुक्तक छन्द को। शेष तरंगों में क्रमशः जाति छन्द, प्राकृत छन्द, मात्रादंडक, वर्ण प्रस्तार, वर्ण सवैया, संस्कृत वर्णिक पद्य, अर्धसम वर्णिक वृत्त, मुक्तक वर्णिक छन्द, और वर्णिक दंडक, निरूपित किये गये हैं। भिखारीदास ने पंचम तरंग में मात्रिक छन्दों का निरूपण करते समय प्रायः संस्कृत के समवर्णिक छन्दों को मात्रिक प्रस्तार के छन्दों में स्थान दिया है। यह पद्धति वज्ञानिक दृष्टि से ठीक होने पर भी ऐतिहासिक विकास क्रम की दृष्टि से ठीक नहीं है, क्योंकि इससे यह भ्रांति उत्पत्ति होती है कि कमल, रतिपद, शेष, अमृतगति, मानवक्रीडा (संस्कृत का माणवकक्रीडित), लक्ष्मी, हरिणी, विद्युन्माला, जलोद्धतगति, जलधरमाला, वंशपत्र, ब्रह्मा जैसे छन्द मात्रिक है । वस्तुतः संस्कृत परंपरा के वर्णिक छन्दों को हिन्दी के मात्रिक छन्दों के साथ खतिया देना ठीक नहीं जान पड़ता ।
पिछले दिनों के दो महत्त्वपूर्ण ग्रंथ पद्माकर के पौत्र गदाधर की 'छन्दोमंजरी' और भारतेंदु हरिश्चन्द्र के पिता गिरिधरदास का 'छंदोवर्णन' है। द्वितीय ग्रंथ हमें उपलब्ध नहीं हो सका है। गदाधर की 'छन्दोमंजरी' में भी भिखारीदास के 'छन्दार्णव' की तरह विविध छन्दों का विशद निरूपण है । आधुनिक युग में इस विषय का प्रसिद्ध ग्रंथ श्री जगन्नाथप्रसाद 'भानु' का 'छन्दप्रभाकर' है।
मध्ययुगीन हिंदी साहित्य में छंद-निरूपण विषयक ग्रंथों की एक दूसरी परंपरा भी उपलब्ध है, जिसे हम डिंगल ग्रंथों की परंपरा कहेंगे। इस परंपरा के ग्रन्थों में 'रूपदीपपिंगल', मंछाराम का 'रघुनाथरूपक (गीतां रो)' और कवि सूर्यमल्ल के दत्तक पुत्रक मुरारिदान का 'डिंगलकोश' प्रसिद्ध हैं । 'डिंगलकोश' वस्तुतः छन्दोविषयक ग्रन्थ न होकर कोश ग्रन्थ है, किंतु इसमें छन्दों का भी विवेचन मिलता है। इस प्रसंग को समाप्त करने के पूर्व डिंगल की विशिष्ट छन्दःपरम्परा पर कुछ संकेत कर देना अनावश्यक न होगा ।
मध्ययुगीन राजस्थानी चारण कवियों के डिंगल गीतों में जिस छन्दःपरम्परा का उदय हुआ है, वह मूलतः मात्रिक वृत्तों की ही परम्परा है। अपभ्रंश छन्दः परम्परा के जो मात्रिक तालच्छन्द हिंदी में आये हैं, उन्हीं का एक भिन्न प्रकार का विकास चारण कवि के डिंगल गीतों में मिलता है। डिंगल गीतों में कम से कम तीन पद्य होते हैं। इन पद्यों की कड़ी को वहाँ 'द्वाला' कहा जाता है। इन पद्यों के पहले द्वाले में मूल छन्द की अपेक्षा दो या तीन मात्रा अधिक आती है। इस प्रकार षोडशमात्रिक प्रस्तार के छन्द के आधार पर बने गीत के पद्य के प्रथम द्वाले में १८ या १९ मात्रा होती है, शेष में १६ । उदाहरण के लिये 'दुमेल' गीत की रचना षोडशमात्रिक प्रस्तार (अरिल्ल, पादाकुलक आदि के ढंग) के अनुसार है; किंतु प्रथम द्वाले में १८ मात्रा मिलती है :
'दशरथ नृप भवण हुआ रघुनंदण, कवसल्या उर दुष्ट निकंदण । रूप चतुरभुज प्रकटत रीधो, दरसण निज माता नैं दीधो || (रघुनाथरूपक पृ० ६०)
इसी तरह षोडशमात्रिक प्रस्तार के आधार पर 'पालवणी', 'झडलुपत', 'ईलोल' जैसे और गीत भी बनाये गये हैं । 'पालवणी' और 'दुमेल' में यह भेद है कि 'दुमेल' में तुक विषम-सम पदों में मिलती है, पलवणी में चारों पदों में एक ही तुक होती है । 'झडलुपत' में तुक केवल पहले-दूसरे-चौथे चरण में ही मिलती है, तीसरा चरण अतुकांत होता है। 'ईलोल' चारों चरण में 'पालवणी' की तरह तुकांत होता है, किंतु फर्क यह है कि यहाँ चार चतुर्मात्रिक गणों
१. दे० छंदार्णव (भिखारीदास ग्रंथावली, प्रथम खंड) पृ० १८२-२१४ २. भारत जीवन प्रेस, काशी से सन् १९०३ में प्रकाशित । ३. दुय दुय पदां दुमेल, मंछ कहै मोहरा मिलै । ___म्होरं चारां मेल, दाखै पालवणी दुझल || - रघुनाथरूपक (७.८) ४. यथा, खल खूनी है तो घण खायक, दुनिया दुज देवा दुखदायक ।
__ करुणा उर आणी इण कारण, निरखे कुल ब्राह्मण रघुनायक । - वही ८.६.२.
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