Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम्
मिश्रण से बनता है, अथवा इसका 'द्विभंगी' भेद भी पाया जा सकता है, जहाँ दो घत्ताओं (षट्पदों) का संकर हो । हेमचन्द्र ने इस प्रकार के समस्त संकर छंदों को 'शीर्षक' संज्ञा दी हैं । षोडशपदी के अन्तर्गत कविदर्पणकार ने पज्झटिका या तत्कोटिक चार छन्दों का पूरा कड़वक लिया है।
अगले तीन उद्देशों में वर्णिक वृत्तों का प्रकरण है, जिनमें पंचम उद्देश्य में वैतालीय कोटि के छंद है । अंतिम उद्देश में 'प्रस्तार' तथा छः प्रत्ययों, नष्ट, उद्दिष्ट आदि का संक्षेप में संकेत कर ग्रंथ समाप्त किया गया है। ( ७ ) प्राकृतपैंगलम्
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$ १५४. प्रस्तुत ग्रंथ प्राकृतपैंगलम् में दो प्रकरण है मात्रावृत्त प्रकरण तथा वर्णवृत्त प्रकरण मात्रावृत्त प्रकरण में प्रा० पै० के संग्राहक ने उन्हीं छंदों को लिया है, जो अधिकाधिक रूप में बंदीजनों या भट्ट कवियों में व्यवहत होते थे। प्रा० पै० का छन्दः सम्बन्धी दृष्टिकोण शास्त्रीय की अपेक्षा व्यावहारिक अधिक है, अतः विविध मात्राओं के या संकर कोटि के समस्त संभाव्य भेदों को प्रा० पै० के संग्राहक ने नहीं लिया है। यही कारण है, स्वयम्भू, हेमचन्द्र तथा राजशेखर में जो लंबी छन्दः सूची हमें मिलती है, उसमें से बहुत कम प्रा० पै० में उपलब्ध है, समस्त छन्द नहीं संकर कोटि के छंदों में भी रड्डा, छप्पय, कुंडलिया जैसे प्रसिद्ध एवं उस काल में अत्यधिक प्रयुक्त छन्दों को ही लिया गया है, ठीक यही स्थिति 'त्रिभंगी' की है, जो वस्तुतः यहाँ स्वतन्त्र छन्द बनकर आता है। इतना ही नहीं, जैसा कि हम विस्तार से अगले पृष्ठों में संकेत करेंगे, इस काल में कई मात्रावृत्त कोटि के छन्द, जो वस्तुतः मूलरूप में तालच्छन्द थे, वर्णिक वृत्त प्रकरण में भी घुले मिले दिखाई पड़ते हैं, सुन्दरी, दुर्मिला, किरीट, तथा त्रिभंगी नाम से वर्णित वर्णिक वृत्तों की कुछ ऐसी ही कहानी है। प्रा० पै० में वर्णित मात्रिक छन्दों के विकास को हम विस्तार से लेने जा रहे हैं, अतः यहाँ प्रा० पैं० के छन्दोविवरण पर विशेष प्रकाश डालना अनावश्यक जान पड़ता है I (८) रत्नशेखर का 'छन्द: कोश'
$ १५५. रत्नशेखर का 'छन्दः कोश' ७४ पद्यों का छोटा-सा ग्रंथ है, जिसमें केवल उन्हीं छन्दों का विवरण पाया जाता है, जो अपभ्रंश के कवियों के द्वारा अधिकांश रूप में प्रयुक्त होते थे । इस तरह रत्नशेखर का लक्ष्य भी केवल व्यावहारिक दृष्टि से ही प्रमुख छन्दों का लक्षण निबद्ध करना है । इन लक्षणों में से अनेक ऐसे हैं, जो रत्नशेखर के स्वयं के न होकर पुराने छन्दोग्रंथकारों के जान पड़ते हैं। रत्नशेखर ने तीन प्राचीन आचार्यों का संकेत किया है
तथा नागराज ( ४, ४५) ९, गोसल या गुल्हु (६, १२, १४, १८, २६, २९) २, तथा अर्जुन या अल्हु (१०, ११, १५, १९, २७, ३०, ३४, ३५, ४१) पिंगल नाग तो छन्दः शास्त्र के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हैं ही, गोसल तथा अर्जुन संभवतः अपभ्रंश के पुराने छन्दः शास्त्री हैं, जिनके कोई ग्रन्थ नहीं मिलते। जिस प्रकार स्वयंभू, हेमचन्द्र तथा रत्नशेखर अपभ्रंश छन्दः शास्त्र की शास्त्रीय परम्परा के प्रतिनिधि है, उसी प्रकार गोसल तथा अर्जुन "भट्ट कवियों की अप० छन्दः परम्परा " (bardic tradition of Ap. Metrics) के आचार्य जान पड़ते हैं, जिनकी परंपरा प्रा० ० के संग्राहक तथा 'छन्द: कोश' के रचयिता रत्नशेखर ने अपनाई है, तथा छन्दों की यही व्यावहारिक परंपरा हिन्दी गुजराती की मध्ययुगीन कविता में भी प्रचलित रही है । रत्नशेखर के लक्षणों में अपभ्रंश काव्य को हेय समझने वाले संस्कृत तथा प्राकृत पंडितों पर व्यंग्य भी मिलता है, जो अपभ्रंश या देशी काव्य की बढ़ती लोकप्रियता का संकेत करता है ।
छन्दः कोश की भाषा-शैली को देखते हुए पता चलता है कि पद्य १-४ तथा पद्य ५१-७४ परिनिष्ठित प्राकृत में निबद्ध है, जब कि पद्य ५-५० भिन्न शैली में निबद्ध हैं, इनकी भाषा परवर्ती अपभ्रंश शैली की परिचायिका है। डा० वेलणकर का अनुमान है कि इनमें से अधिकांश को रत्नशेखर ने अन्य ग्रंथकारों से उद्धृत किया है ।" अल्हु तथा गुल्हु १. नायाणं इसेणं उत्तो (४), भासह पिंगलु एओ (४५) रत्नशेखर : छन्दः कोश ।
२. सुगुल्ह पप मुत्तिअदाम (६) गुल्हकवि एरिस वुत्तठ (१२), नारायनाम सोमकांत गोसलेण दिओ (१४), आदि ।
३. अज्जुणो जंपर कामिणीमोहणं (१०), छंदपि मेणाउलं अल्हु जंपेइ (११), नरायनाम अज्जुणेण भासियो सु तत्थ पंचचामरो (१५), आदि ।
४. छन्दः कोश पद्य १२ तथा २९ ।
५. From all these facts, it is therefore permissible to conclude that most of these stanzas ie. vv. 5-50 were not composed by Ratnasekhara, but merely reproduced by him from earlier works.
- H. D. Velankar : Apabhramsa Metres I, Journal of Univ. of Bom. Nov. 1933, p. 52
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