Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःशास्त्र वसु-द्विपदिका (८ मात्रा), मकरभुजा (८ मात्रा, ४ + ४), मदनविलसिता (८ मात्रा, ५ + ३), जंभिष्टिका (९ मात्रा, ४ + ५), लवली (९ मात्रा, ५ + ४) का विवरण दिया गया है, जो स्वयम्भूछन्दस् के सप्तम अध्याय के अनुसार ही है। इस प्रकार राजशेखर ने अन्तरसमा तथा सर्वसमा चतुष्पदियों का विवरण विस्तार से दिया है, जो स्वयंभू के अनुसार है, जब कि हेमचन्द्र की पद्धति कुछ भिन्न है। वैसे अर्धसमा के कतिपय नामकरण जो राजशेखर में मिलते हैं, स्वयम्भू के दिये नामों से भिन्न हैं । यथा, विषमचरण ८, मात्रा समचरण ७ मात्रा (स्वयम्भू-सुमणोपमा, राजशेखर-सुमनोरमा), विषम ७. सम १० (स्वयम्भू-वम्हण, राजशेखर-मल्हणक), विषम १२, सम ७. (स्वयम्भू-भमररिंछोली, राजशेखर-भ्रमरावली)। कहीं २ स्वयम्भू तथा राजशेखर के क्रम में भी विपर्यय हो गया है। जैसे, राजशेखर ने पहले मधुरकरललित (विषम ७, सम १६) का विवरण दिया है, तब शशिशेखर (विषम १६, सम ७) का । जब कि स्वयम्भू में पहले 'ससिसेहर' (१६, ७) है, तब महुअरविलसिअ (७, १६)। इतना होने पर भी स्वयंभू की तालिका से राजशेखर की तालिका तथा छन्दो-नाम एवं लक्षण प्रायः मिलते हैं। (५) हेमचन्द्र का “छन्दोनुशासन" ।
१५२. कलिकालसर्वज्ञ श्वेताम्बर जैन आचार्य हेमचन्द्र सूरि का परिचय देना विशेष आवश्यक न होगा। इनका समय ईसा की १२वीं शताब्दी है तथा ये गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह के भतीजे कुमारपाल के गुरु थे। ये अपने समय के प्रसिद्ध जैन आचार्य थे तथा दर्शन, साहित्यशास्त्र, व्याकरण, काव्य-रचना अनेक क्षेत्रों में इनकी अप्रतिहतगति थी। जिस प्रकार इनके व्याकरण का अष्टम अध्याय प्राकृत तथा अपभ्रंश के व्याकरणविषयक ज्ञान की खनि है, वैसे ही इनके 'छन्दोनुशासन' का उत्तरार्ध प्राकृत तथा अपभ्रंश के वृत्तों का महान् आकरग्रंथ है। हेमचन्द्र ने अपने समय तक प्रचलित समस्त प्रसिद्ध तथा अप्रसिद्ध प्राकृत एवं अपभ्रंश छन्दोविधाओं का विस्तार से विवेचन दिया है, तथा उन्हें स्वोपज्ञ उदाहरणों से उदाहृत भी किया है, जिनमें सर्वत्र छन्दोनाम एवं 'मुद्रालंकार' का प्रयोग किया गया है। जैसा कि बताया जा चुका है, हेमचन्द्र का छन्दोविवरण एक छन्दःशास्त्री का विवरण है तथा उन्होंने समस्त संभाव्य छन्दःप्रकारों को अपने ग्रंथ में समेटने की कोशिश की है। वैसे अपभ्रंश के मिश्रछन्दों (strophes) के संबंध में अवश्य वे विस्तार नहीं करते, तथा इतना ही संकेत करते हैं कि ये अनेक बनाये जा सकते हैं।
आचार्य हेमचन्द्र का यह प्रसिद्ध ग्रंथ आठ अध्यायों में विभक्त है जिसमें साढे तीन से अधिक अध्यायों में संस्कृत में प्रचलित वर्णिक वृत्तों का विवरण है। चतुर्थ अध्याय के उत्तरार्ध में प्राकृत छंदों का विवरण दिया गया है। सभी प्रकार के प्राकृत छंदों को चार वर्गों में बाँट दिया गया है - आर्या, गलितक, खञ्जक तथा शीर्षक । आर्या वर्ग के अंतर्गत २५ छंदों का वर्णन किया गया है, जो गीति के ही विविध प्रकार है, जबकि किसी स्थान पर कोई खास मात्रिक गण प्रयुक्त किया जाता है, जैसे गीति छंद में ही अष्टम गुरु के स्थान पर चतुर्मात्रिक गण कर देने पर 'स्कन्धक' छन्द हो जाता है ।३ गलितकप्रकरण में २३ छन्दों का विवरण है, जिसमें वास्तविक 'गलितक' २१ मात्रा (२ x ५ + २ x ४ + ३) का चतुष्पात् छन्द है। इस वर्ग के सभी छन्दों में 'यमक' पाया जाता है, यदि यह 'यमक' विषम-सम (१, २) पादों में है, तो 'गलितक' होता है, विषम-विषम, (१, ३) सम-सम (२, ४) में होगा तो वह 'अन्तर्गलितक' होगा; किन्तु चारों चरणों में 'यमक' मिलने पर यही छंद 'विगलितक' कहलायेगा । गलितकप्रकरण में अन्य मात्रिक वर्णो का भी उल्लेख हैं, जिसमें सबसे छोटा वृत्त 'मुक्तावली' (१६ मात्रा, ४+३+४) है। डा० वेलणकर इसे तालवृत्त घोषित कर शुद्ध मात्रिकवृत्त नहीं मानते । संभवत: डा० वेलणकर यहाँ ८+८ की ताल का प्रयोग मानते हैं, ठीक वैसे ही जैसे पादाकुलक, अडिल्ला १. राजशेखर के ग्रंथ में 'चगणष (प) गणाभ्यां किल जंभिष्टिका' (५.२३५) पाठ है, जो वस्तुतः 'ष' न होकर 'प' है । तु०
'चपंसजुआ किर । जंमेट्ठिअआ' (स्वयंभू ७.१३) ।। २. दे० स्वयंभूच्छन्दस् ६.२२-२३, तथा छन्दःशेखर ५.५३-५४. ३. चेष्टमे स्कन्धकम् ।। (४.५). गीतिरेवाष्टमस्य गुरोः स्थाने चगणे कृते स्कन्धकम् । xxx यथा,
तुह रिउरायपुरेसुं तरुणीजणलालियम्मि किंकेल्लिवणे ।।
संपइ अरण्णमहिसाण खंधकंडूयणं पयट्टेइ दढम् ॥ - Journal B.B.R.A.S. (1943) P. 31 ४. पौ चौ तो गलितकं यमितेछौ ।। (४.१७) द्वौ पञ्चमात्रौ द्वौ चतुर्मात्रावेकस्त्रिमात्रो गणो गलितकम् । अंघ्रौ पादे यमिते सति ॥
- वही P. 36. ५. तीचौ मुक्तावली (४.३८) चत्वारस्त्रिमात्राश्चतुर्मात्रैको मुक्तावलीगलितकं । - वही p. 43 ६. The Muktavali is surely a Tala vrtta. -- वही, p. 27 For Private & Personal Use Only
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