Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःशास्त्र स्वयंभू का छन्दोग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त है। इनमें तीन अध्याय संस्कृत छंदों से संबद्ध हैं तथा ये बाम्बे ब्रांच आव् रायल एशियाटिक सोसायटी के १९३५ के जर्नल में प्रकाशित हुए हैं। शेष पाँच अध्याय अपभ्रंश छंदों से संबद्ध हैं जिनका प्रकाशन बम्बई यूनीवर्सिटी के जर्नल १९३६ में हुआ है। स्वयंभू ने अपने ग्रंथ को पंचांशसारभूत, बहुलार्थ तथा लक्षलक्षणविशुद्ध कहा है तथा प्रत्येक अध्याय की परिसमाप्ति में इसका संकेत मिलता है।
स्वयम्भूच्छन्दस् का प्रथम अध्याय अधूरा मिलता है, उसका आरंभिक अंश त्रुटित मिला है। इस अंशमें शक्वरी (१४ वर्ण) कोटि के वर्णच्छंदों से लेकर उत्कृति (२६ वर्ण) वर्ग के छंदों तथा अंत में विभिन्न दण्डकों का विवरण मिलता है। छंदों के लक्षणोदाहरण प्रायः प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं। द्वितीय अध्याय में १४ विषम वृत्तों का विवरण दिया गया है। तृतीय अध्याय में उद्गता तथा उसके विविध भेदों का, विषम वृत्तों का वर्णन है तथा यहीं वृत्त, सुवृत्त, पथ्या, पथ्यावृत्त जैसे श्लोक-भेदों के लक्षणोदाहरण दिये गये हैं। चतुर्थ अध्याय से अष्टम तक स्वयंभू ने विस्तार से अपभ्रंश छंदों का विवेचन किया है। चतुर्थ अध्याय में उत्साह, दोहा तथा उसके भेद, मात्रा और उसके भेद, रड्डा, वदन, उपवदन, मडिला, अडिला, सुंदरी, हृदयिनी (हिआलिआ), धवल तथा मंगल का विवरण है। इनमें से कुछ का विवरण प्रा० पैं. के तुलनात्मक अध्ययन में द्रष्टव्य है। पाँचवे अध्याय में २४ षट्पदियों का वर्णन है। छठे अध्याय में ११८ चतुष्पदी छंद (११० अर्धसम, ८ सर्वसम) तथा ४० द्विपदी छंदों के लक्षण दिये हैं, इनमें केवल कुछ ही छंदों के अलग से उदाहरण दिये गये हैं । सप्तम अध्याय में और १० द्विपदियों के लक्षण दिये गये हैं, जो चार से १० मात्रा तक की है :- विजआ (४ मात्रा), रेवआ (५ मात्रा), गणदुवई (गणद्विपदी) (६ मात्रा), सुरदुवइआ (७ मात्रा, ४ + ३), अच्छरा (अप्सरा) (७ मात्रा, ५ + २), मंगलावई (मंगलावती) (८ मात्रा, ५ + ३), मअरभुजा (मकरभुजा) (८ मात्रा, ४ + ४), मलअविलसिआ (८ मात्रा, ६ + २), जंभेट्टिआ (९ मात्रा, ४ + ५), ललअअत्ति (ललयवती) १० मात्रा, ५ + ५) । अष्टम अध्याय में उत्थक, मदनावतार, ध्रुवक तथा ७ छडुणिकाओं, ३ घत्ताओं, पद्धटिका तथा द्विपदी छंदों का विवरण मिलता है, जो वस्तुत: अपभ्रंश प्रबंध काव्यों (पुराण या चरित काव्यों) की सन्धि में छंदों का प्रयोग किस तरह किया जाय इस दृष्टि से दिया गया है।
डा० वेलणकर के अनुसार स्वयंभू के छंदोग्रन्थ में प्राकृतापभ्रंश छंदों के विवरण में कुछ निजी विशेषतायें पाई जाती हैं, जो अन्य छंदःशास्त्रियों से मेल नहीं खातीं । उसने अक्षर गण वृत्तों तथा मात्रागण छंदों में कोई खास भेद नहीं किया है। विरहांक की भाँति स्वयंभू ने भी संस्कृत वणिक वृत्तों के लक्षणों में मगण, नगण जैसे वर्णिक गणों का प्रयोग न कर मात्रिक गणों का ही प्रयोग किया है। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि ये दोनों लेखक उनसे अपरिचित हैं, उन्होंने वस्तुतः उनको विशेष महत्त्व नहीं दिया है। स्वयंभू ने इन मात्रिक गणों के लिये भी अपनी ही पारिभाषिक संज्ञायें दी हैं :-द, दआर (द्विमात्रिक गण), त, तगण, तआर, तंश (त्रिमात्रिक), च, चगण, चआर, चंअ (चतुर्मात्रिक), प, पगण, पआर, पंस (पंचमात्रिक), छ, छगण, छआर, छंस (षण्मात्रिक गण) । इनके अतिरिक्त लघु के लिये 'ल' तथा गुरु के लिये 'ग' का प्रयोग किया गया है। इस तरह 'पता पुब्वला' (१.१७) का अर्थ है, "लघ्वादि पंचकल तथा लघ्वादि त्रिकल" । स्वयंभू ने केवल संस्कृत वृत्तों को प्राकृत वृत्तों के रूप में ही लिया है, उन वास्तविक प्राकृत मात्रिक वृत्तों को नहीं लिया है, जिनका संकेत हेमचंद्र के छन्दोनुशासन में तथा विरहांक के वृत्तजातिसमुच्चय (अध्याय ३-४) में मिलता
१. पंचंससारहुए बहुलत्थे लक्खलक्खणविसुद्धे ।
एदि सअंभुच्छन्दे अद्धसमं परिसमत्तमिणम् ।। (स्वयंभूच्छन्दस्, २.३०). २. स्वयंभूच्छन्दस् ४.३४. ३. वही ४.३५ ४. वही ४. ३६-४० ५. पद्धडिआ पुणु जेइ करेन्ति । ते सोडह मत्तउ पउ धरेन्ति ॥
विहिं पअहिं जमउ ते णिम्मअन्ति । कउवअ अट्ठहिं जमअहिं रअन्ति ।। (स्वयंभू० ८.३०) ६. संधिहि आइहिं घत्ता, दुवई गाहाडिल्ला ।
मत्ता पद्धडिआए, छड्डुणिआवि पडिल्ला ।। (८.३५)
घत्ताछडुणिआहिं पद्धडिआ (हिं) सुवण्णरूएहिं । रासाबन्धो कव्वे जणमणअहिरामओ होइ ॥ (८.४९)
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