Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text
________________
५५२
प्राकृतपैंगलम् या पद्धडिया कोटि के षोडशमात्रिक तालच्छंदों में होता है । वस्तुतः 'गलितक' एक ऐसा पारिभाषिक छन्द है, जिसमें अनेक प्रकार के वे सभी छन्द (आर्या तथा दण्डक को छोड़कर) आ जाते हैं, जिसमें किन्हीं दो अथवा चारों चरणों में 'यमक' का प्रयोग पाया जाता है। 'गलितक' में ही जब यमक के स्थान पर केवल अनुप्रास (तुक) हो, तो ये छन्द 'सञ्जक' वर्ग के अंतर्गत आते हैं । इस वर्ग में खञ्जक आदि ३० वृत्तों का विवरण दिया गया है। उदाहरणार्थ, खञ्जक २३ मात्रा का छंद है, जिसमें मात्रिक गणों की स्थिति २ x ३ + ३ x ४ + ३ + 5 (गुरु) के क्रम से होती है, तथा चारों चरणों में 'तुक' मिलती है । इसी प्रकरण में २८ मात्रावाले द्विपदी छंद के भी चतुष्पात् रूप का वर्णन किया है, तथा वहाँ इस द्विपदी के अनेक प्रकार भेदों का विविध नामों से वर्णन मिलता है। (दे० ४.५६-७४) इस प्रकरण के अंत में मदनावतार (४४५), मधुकरी (५४५), नवकोकिला (६४५), कामलीला (७-५), सुतारा (८४५), तथा वसंतोत्सव (९४५) जैसे विविधसंख्यक पंचमात्रिक गणों वाले पाँच मात्रिक छंदों का विवरण मिलता है। शीर्षक प्रकरण में उन समस्त 'खञ्जक' वृत्तों को लिया गया है, जिन्हें कवि इच्छानुसार बढ़ा कर नये वृत्त का रूप दे देता है । (खञ्जकं दीर्धीकृतं शीर्षकम् । ४.७६) इसके दो भेद माने गये हैं समशीर्षक तथा विषमशीर्षक । इसी प्रकरण के अंत में हेमचन्द्र ने मिश्रित छंदों-द्विभंगी तथा त्रिभंगी-के अनेक प्रकारों का संकेत किया है। द्विभंगी में दो छंदों का मिश्रण पाया जाता है, त्रिभंगी में तीन छंदों का । द्विभंगी तथा त्रिभंगी के भेदों के उदाहरणों में मुद्रालंकार न पाये जाने के कारण डा० वेलणकर का अनुमान है कि ये उदाहरण हेमचन्द्रने अन्यत्र से उद्धृत किये हैं ।
छन्दोनुशासन के शेष ४ अध्यायों में प्रथम तीन (५ से ७ तक) में अपभ्रंश छन्दों का विवरण दिया गया है। पंचम अध्याय में उत्साह आदि चतुष्पदी सममात्रिक छंदों का वर्णन है । पहले उत्साह (२४ मात्रा) का संकेत है । इसके बाद २० से अधिक मात्रा वाले रासक तथा अन्य आठ छंदों का लक्षणोदाहरण पाया जाता है। तदनंतर सम-विषम मात्रिक छंदों का विवरण है । इसमें वर्णित प्रमुख छंद ये हैं :
उत्साह (२४ मात्रा, ६x४ छ: चतुर्मात्रिकगण, जगण (निषिद्ध), रासक (२१ मात्रा, १८+ (नगण), यति १४ मात्रा पर)', मेघ (२८ मात्रा, रगण+४ मगण), विभ्रम (१७ मात्रा, तगण+रगण+यगण+लघु+गुरु), रास (विषमचरण ७ मात्रा, सम १३ मात्रा)६, वस्तुक (२५ मात्रा, २४४+२x5। (लघ्वंतत्रिमात्रिक)+२४४+३), रासावलय (२१ मात्रा, ६+४ (जगणेतर गण)+६+५), वदनक (१६ मात्रा, ६+४+४+२) उपवदनक (१७ मात्रा, ६+४+४+३),
१. दण्डकार्यादिभ्योऽन्यच्च सयमकं गलितकमित्येके । - वही p. 43 २. तौ चितगाः खञ्जकम् । (४.४२) त्रिमात्रगणद्वय चतुर्मात्रत्रयं त्रिमात्रो गुरुश्चायमकं सानुप्रासं खञ्जकं यथा
मत्तमहुअमंडलकोलाहलनिब्भरेसुं, उच्छलंतपरहुअकुटुंबपंचमसरेसुं।
मलयवायखंजीकयसिसिरिवया घणेसुं, विलसइ कावि चित्तसमयंमि सिरी वणेसुं ॥ ३. दामात्र नो रासको ढैः ॥ (५.३) दा इत्यष्टादशमात्रा नगणश्च रासकः द्वैरिति चतुर्दशमात्राभिर्यतिः । - वही p. 62 ४. रोमीर्मेधः (५.१३) रगणो मगण चतुष्टयं च मेघः । - वही p. 64 ५. त्रयलगविभ्रमः (५.१४) तगणरगणयगणा लघुगुरू च विभ्रमः । वही p. 65 ६. ओजयुजोश्छडा रासः (५.१६) विषमसमयोः पादयोः यथासंख्यं छा इति सप्त डा इति त्रयोदश मात्रा यत्र स रासः ।।-वही p. 65 ७. चौ लान्ततौ चौ तो वस्तुकम् ।। (५.२४) चगणद्वयं द्वौ च लघ्वन्तौ चगणद्वयं तगणश्च पादे चेत्तदा वस्तुकं चतुर्भिः पादैः ।।
- वही p. 61. ८. पंचचाद्दो वदनकम् (५.२८) ॥ षचचेभ्यः परो द्विमात्रश्चेत्तदा वदनकम् ।। ९. त उपवदनकम् (५.२९) ॥ षचचेभ्यः परस्त्रिमात्रश्चेत्तदोपवदनकम् ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org