Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् (अनेक अडिला, द्विपदी, मात्रा तथा ढोसा के द्वारा जिस की रचना की जाती है, वह रासक है)।
इस प्रकार स्पष्ट है कि विरहांक की रासकसंबंधी परिभाषा 'रासक या आभाणक' नाम से प्रसिद्ध २१ मात्रावाले छंद से सर्वथा भिन्न है, जिसका जिक बाद के छंदःशास्त्रियों ने किया है।
ग्रंथ के पंचम नियम में विरहांक ने उन ५२ वर्णिक छंदों का लक्षण दिया है, जो प्राय: संस्कृत कवियों द्वारा प्रयुक्त किये जाते थे। इस नियम के लक्षण-भाग की भाषा संस्कृत ही है । षष्ठ नियम में प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, लघुक्रिया, संख्यका तथा अध्वा इन छ: प्रकार के छन्दःप्रश्रयों की गणनप्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। प्रस्तार के अंतर्गत (१) सूची, (२) मेरु, (३) पताका, (४) समुद्र, (५) विपरीत-समुद्र, (६) पाताल, (७) शाल्मकी तथा (८) विपरीत-शाल्मली इन आठों भेदों की गणनप्रक्रिया का उल्लेख है ।
विरहांक के ग्रंथ में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। प्रथम तो वह 'यति' संबंधी उल्लेख कहीं नहीं करता । अतः ऐसा जान पड़ता है कि विरहांक उस सम्प्रदाय का छन्दःशास्त्री था, जो छंदों में 'यति' पर जोर नहीं देता, छंद में उसका अस्तित्व जरूरी नहीं मानता । दूसरे संस्कृत के वर्णिक छंदों के लक्षणों में वह कहीं नगण, मगण जैसे वर्णिक गणों का जिक्र न कर उन्हीं पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग करता है, जिसकी तालिका प्रथम नियम में ही दी गई है।
विरहांक के समय के विषय में पूरी जानकारी नहीं मिलती । वृत्तजातिसमुच्चय में जिन पुराने छन्दःशास्त्रियों तथा कवियों का उल्लेख मिलता है, वे है :- पिंगल (४.१३), भुजगाधिप (२.८-९, ३.१२), विषधर (१.२२, २.७), वृद्धकवि (२.८-९, ३.१२), सालाहण (२.८-९) तथा हाल (३.१२) । किंतु यह तालिका इतना ही संकेत कर सकती है कि विरहांक स्वयंभू तथा हेमचन्द्र से प्राचीन है। इस ग्रन्थ पर गोपाल की टीका मिलती है तथा डा० वेलणकर को उपलब्ध ताडपत्र हस्तलेख ११९२ सं० का है। फलतः विरहांक का समय इससे २००-३०० वर्ष पुराना होना ही चाहिए । डा० वेलणकर का अनुमान है कि विरहांक ९वीं या १०वीं शती में या और पहले मौजूद था । (३) स्वयम्भूका 'स्वयम्भूच्छन्दस्'
१५०. स्वयम्भू की छन्दःशास्त्रीय कृति 'स्वयम्भूच्छन्दस्' महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसका उल्लेख हेमचंद्र (१.१०६) ने छन्दोनुशासन में तथा कविदर्पण के वृत्तिकार ने कई स्थानों (१.८, २.३२, ४.१०३) पर किया है । अतः स्वयम्भू इनसे अधिक प्राचीन छन्दःशास्त्री है। संभवत: स्वयंभू जैन साधु था तथा कई विद्वानों ने इसे 'पउमचरिउ' तथा 'हरिवंशपुराण' के रचयिता स्वयंभू से अभिन्न माना है जो ध्रुव धारावर्ष (७८०-९४ ई०) के मंत्री रयडा धनंजय का आश्रित था । किंतु अन्य विद्वान् दोनों स्वयंभू को भिन्न भिन्न मानते हैं। डा० वेलणकर ने स्वयंभू को अनुमानतः १० वीं सदी ईसा का माना है, किंतु यदि दोनों स्वयंभू एक हैं, तो उसकी तिथि आठवीं-नवीं सदी मानना होगा । स्वयंभू ने अपने ग्रंथ में ५८ कवियों के उदाहरण दिये हैं, इनमें से १० अपभ्रंश कवि हैं। इन अपभ्रंश कवियों में गोविंद तथा चतुर्मुख विशेष प्रसिद्ध हैं, जिनके पाँच पाँच छंद यहाँ उद्धत किये गये हैं। संभवतः गोविंद ने श्रीकृष्ण के जीवन से संबद्ध कोई काव्य (हरिवंशपुराण) लिखा था तथा चतुर्मुख का काव्य श्रीराम के जीवन से संबद्ध था । यदि यह चतुर्मुख ‘पउमचरिउ' वाले चतुर्मुख स्वयंभू ही हैं, तो फिर छन्दःशास्त्री स्वयंभू कवि चतुर्मुख से भिन्न है। वैसे प्रेमी जी तथा डा० हीरालाल जैन कवि स्वयंभू तथा चतुर्मुख को भी भिन्न भिन्न व्यक्ति मानते हैं । कवि चतुर्मुख का श्लिष्ट संकेत अद्दहमाण ने भी 'संदेशरासक' में किया है, ऐसा पं० हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत है । ऐसा जान पड़ता है, गोविंद तथा चतुर्मुख भी जैन कवि थे।
१. दे० - Sandesarasaka : (study). Metres $5. p. 53 २. वृत्तजाति० ६-४-२८ ३. Velankar : Vrittajatisamuccaya of Virahanka. J. R.A.S. (Bomb. Br.) Vol. V(1925) p.32 ४. राहुल सांकृत्यायनः हिंदी काव्यधारा पृ० २२-२३. ५. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य का इतिहास पृ० ३७३. ६. जा जस्स कव्वसत्ती सा तेण अलज्जिरेण भणियव्वा ।
जइ चउमुहेण भणियं ता सेसा मा भणिज्जंतु ॥ (संदेश० १७) यहाँ पं० द्विवेदी 'चतुर्मुख' में श्लेष मानकर 'ब्रह्मा' तथा 'अपभ्रंश कवि चतुर्मुख' दोनों अर्थ मानते हैं।
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