Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text
________________
वाक्य- विचार
$ ११८. किसी भी भाषा के व्याकरण का दो विभागों में विभाजन किया जाता है :- पद-रचना (morphology) तथा वाक्यरचना (syntax ) । वाक्यरचना से हमारा तात्पर्य शब्दों तथा सविभक्तिक पदों की वाक्यगत संयोजना के नियमों से है। कई भाषाओं में प्रायः पद-रचना तथा वाक्यरचना में कोई खास स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं रहती । भारतीय आर्य भाषाओं में वाक्यरचना की एक निश्चित पद्धति पाई जाती है। संस्कृत की वाक्यरचना विशेष जटिल नहीं है। इसमें प्रत्येक पद का पारस्परिक संबंध विभक्ति के द्वारा व्यक्त किया जाता है। इसीलिए संस्कृत वाक्य में किसी पद का ठीक वैसा नियत स्थान नहीं होता, जैसा हिंदी आदि न० भा० आ० भाषाओं में यदि हमें अनवधारण वाले (non-emphatic) अर्थ का द्योतन कराना है, तो हम 'स पुरुषः तं श्वानमताडयत्', 'स पुरुषोऽताडयत्तं श्वानं', 'तं श्वानमताडयत् स पुरुषः ' कुछ भी कह सकते हैं। ठीक यही बात ग्रीक तथा लातिनी भाषाओं में पाई जाती है। किंतु इतना होने पर भी संस्कृत का कारक - प्रकरण विशेष जटिल है, कतिपय द्विकर्मक क्रियाओं का विधान तत्तत् कर्मप्रवचनीयों के साथ निश्चित विभक्ति का प्रयोग, संस्कृत वाक्यरचना को दूसरी दृष्टि से जटिल बना देता है । सारल्यप्रवृत्ति के कारण संस्कृत की वाक्यरचना तथा उसके कारकनियम धीरे धीरे सरलता की ओर बढ़ने लगे। प्राकृत ने फिर भी संस्कृत वाक्यरचना की परम्परा को कुछ सुरक्षित रक्खा, किंतु अपभ्रंश काल में ज्यों ज्यों सुप् चिह्नों का लोप, निर्विभक्तिक पदों का प्रयोग, परसर्गों का उदय होने लगा, त्यों त्यों भारतीय आर्य भाषा विश्लिष्ट प्रवृत्ति की ओर बढ़ने लगी और न० भा० आ० में आते आते संस्कृत वाक्यरचना का पूरा गुणात्मक परिवर्तन हो गया । यही कारण है कि संस्कृत की वाक्यरचना आज की भारतीय आर्य भाषाओं व बोलियों की वाक्यरचना से भिन्न दिखाई पड़ती है।
"
११९. वाक्य में प्रयुक्त समस्त पदों को दो विभागों में बाँटा जाता है उद्देश्य तथा विधेय । वैयाकरणों ने प्रायः इन्हें दो भिन्न-भिन्न अंग (वाक्यांग) माना है, किंतु जैसा कि डेनिश भाषाशास्त्री येस्पर्सन ने कहा है, "उद्देश्य तथा विधेय दो अलग अलग वस्तु न होकर एक ही "अभिसंबंध" (nexus ) के दो अंशों की तरह, एक ही वस्तु के दो अंश हैं, ठीक वैसे ही जैसे एक सिक्के के दो पहलू । प्रत्येक अभिसंबंध वाक्य न होकर केवल एक समग्र तथा स्वतंत्र अभिसंबंध ही वाक्यरचना का मूल उपकरण है ।" यही कारण है कि वाक्य में स्पष्ट रूप में उद्देश्य तथा विधेय का उपादान जरूरी नहीं है, केवल उद्देश्य तथा केवल विधेय के उपादान वाले एकपद वाक्यों (one-member sentences) को भी वाक्य माना जाता है। पुराने वैयाकरण "गच्छ", "लिख", "जाओ", जैसे केवल विधेयपरक वाक्यों में 'उद्देश्य' (त्वं, तुम) का आक्षेप करते हैं; तब उद्देश्यपूर्ति मानकर इसकी वाक्यरचना की कल्पना करते हैं। किंतु येस्पर्सन ऐसे स्थलों पर एकपदात्मक वाक्यों को ही स्वीकार करते हैं। पर येस्पर्सन का यह मत उन स्थलों पर लागू नहीं होता, जहाँ काव्य - भाषा में छन्दोनुरोध से उद्देश्य या विधेय या उनके किसी एक टुकड़े को छोड़ दिया जाता है, तथा अर्थप्रत्यय के लिए एक अंश का आक्षेप करना जरूरी होता है। संदेशरासक में प्रो० भावाणी ने ऐसे स्थल संकेतित किये हैं, जहाँ आक्षेप के बिना अर्थप्रतीति नहीं हो पाती। श्री भायाणी ने एक उदाहरण यह दिया है
:
इत्थंतरि पुण पहिय सिज्ज इक्कल्लिया
पिठ पेसिड मण दूअउ पिम्मगहिल्लिइ (१३६).
(हे पथिक, इस समय सेज पर अकेली प्रेम में पागल (अथवा ग्रस्त ) मैंने मनरूपी दूत को प्रिय (के पास) भेज दिया ।)
१.
२.
H. A. Gleason: An Introduction to Descriptive Linguistics. ch. 10, p. 128.
भोलाशंकर व्यास: संस्कृत का भाषाशास्त्रीय अध्ययन पृ० २४७
Jesperson: The Philosophy of Grammar p. 306.
४. An old-fashioned grammarian will feel a certain repugnance to this theory of one-member sentence, and will be inclined to explain them by his panacea, ellipsis. Ibid p. 306.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org