Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् का छन्दःशास्त्रीय अनुशीलन
५१९ है। शास्त्रीय संस्कृत के छन्दःशास्त्रीयग्रंथों में इन छन्दों में सर्वत्र यति का विधान नहीं मिलता, किंतु कई छन्दों में नियमत: यति का उल्लेख किया जाता है। जैसे, शालिनी में ४, ७ पर यति होने का उल्लेख पिंगलछन्द:सूत्र में मिलता है :- "शालिनी म्तौ त्गौ ग् समुद्रऋषयः" (६.१९) । संस्कृत छन्दःशास्त्रियों में यति के नियम के संबंध में दो मत पाये जाते हैं। पादांत यति को प्रायः सभी आचार्य स्वीकार करते हैं, किंतु वृत्तरत्नाकर के टीकाकार नारायण ने बताया है कि भरत यति का कोई संकेत नहीं करते । 'शुल्काम्बरादयस्तु पादान्त एव यतिमाहुः । भरतादयस्तु यति नेच्छन्ति ।' स्वयंभू के अपभ्रंश छन्दःशास्त्रीय ग्रंथ 'स्वयंभूच्छन्दस्' में भी यति-संबंधी विभिन्न मतों का संकेत मिलता है :
जयदेवपिंगला सक्कयंमि दुच्चिय जई समिच्छन्ति ।
मंडव्वभरहकासवसेयवपमुहा न इच्छन्ति ॥ (स्वयंभूच्छन्दस् १.१४४) स्पष्ट है कि छन्दःशास्त्रियों का एक दल संस्कृत वर्णिक वृत्तों में यति का पालन करना जरूरी समझता था, इस दल के प्रमुख आचार्य पिंगल तथा जयदेव (संभवतः गीतगोविंदकार से भिन्न) हैं। दूसरा दल, जिसके प्रमुख आचार्य मांडव्य, भरत, काश्यप तथा सैतव हैं, यति को संस्कृत वृत्तों में सर्वथा आवश्यक नहीं मानता । किंतु ऐसा जान पड़ता है कि यह मतभेद केवल पादमध्यगत 'यति' के बारे में ही रहा होगा, पादांत यति को तो सभी आचार्य स्वीकार करते होंगे। भरत ने नाट्यशास्त्र के छन्दःप्रकरण में अधिकांश लक्षणों में 'यति' का निर्देश नहीं किया है, उदाहरण के लिये शार्दूलविक्रीडित का लक्षण ले लें । किंतु तत्तत् छन्दों के उदाहरणों को देखने पर पता चलता है कि वहाँ नियत रूप से यति पाई जाती है। जैसे, शार्दूलविक्रीडित के निम्न उदाहरण में १२ वें वर्ण के बाद नियत रूप से यति का विधान है :
नानाशस्त्रशतघ्नितोमरहताः, प्रभ्रष्टसर्वायुधा, निभिन्नोदरबाहुवकानयना, नित्सिताः शत्रवः । धैर्योत्साहपराक्रमप्रभृतिभि, स्तैस्तैर्विचित्रैर्गुणै, वृत्तं ते रिपुघाति भाति समरे, शार्दूलविक्रीडितम् ॥
(नाट्यशास्त्र १६.९०) वैसे छिटपुट लक्षणों में भरत के नाट्यशास्त्र में भी पादमध्यगत 'यति' का संकेत मिल जाता है । जैसे
षष्ठं च नवमं चैव लघु स्यात् त्रैष्टभे यदि ।
चभिरा_विच्छेदः सा ज्ञेया शालिनी यथा ॥ (नाट्यशास्त्र १६.३६). यहाँ शालिनी के लक्षण में इस बात का संकेत भरत ने ही किया है कि इस छन्द में पहले चार वर्णों के बाद पदमध्यगत यति (विच्छेद) पाई जाती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भले ही भरत ने प्रायः लक्षणों में यति का संकेत न किया हो, वे इसको स्वीकार अवश्य करते थे तथा यति-विधान न मानने वाले लोगों की सूची में भरत का नाम डाल देना अनुचित है। संस्कृत वर्णिक छन्दों में यति का विधान मधुरता के लिये किया जाता है; समग्र चरण को एक साँस में पढ़ने से छन्द में जो कटुता आ जाती है, उसे हटाकर उसमें गेय तत्त्व का समावेश कर माधुर्य पैदा करना ही वणिक वृत्तों की 'यति' का लक्ष्य जान पड़ता है। संस्कृत छन्दों की गति में 'यति' का विशेष हाथ है तथा कभी कभी एक ही वर्णिक गणप्रक्रिया वाले छन्दों में विविध यति-विधान से भेद हो जाता है, उन की गूंज और गति (cadence) बिलकुल भिन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए प्रा० पैं० में 'न न न न स' वाले वर्णिक छन्द को 'शरभ' कहा गया है, जिसे संस्कृत छन्दःशास्त्री 'शशिकला' भी कहते हैं । इस छन्द में पदमध्यगत 'यति' नहीं है, किंतु इसी गण-प्रक्रिया वाले छन्द में ६, ९ पर यति करने पर 'स्रक्' छन्द तथा ८, ७ पर यति करने पर 'मणिगुणनिकर' छन्द हो जाता है। यति के इस विभिन्न विधान से छन्द की गति में कितना परिवर्तन आ जाता है, यह तीनों छन्दों के निम्न उदाहरणों से स्पष्ट हो जायगा :(१) शरभ :- अमलकमलदलरुचिधरनयनो, जलनिधिमधिफणिपतिफणशयनः ।
दनुजविजयसुरपतिनतिमुदितो, हरिरपहरतु दुरितततिमुदितः ॥
१. दे० भरत : नाट्यशास्त्र १६.८८-८९. २. एवं यथा यथोद्वेगः सुधियां नोपजायते ।
तथा तथा मधुरतानिमित्तं यतिरिष्यते ॥ वृत्तरत्नाकर
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