Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःपरम्परा प्राकृत की निजी छन्दःपरम्परा तो अतुकांत मात्राच्छन्दों या जातिच्छन्दों की है, जिनका प्रमुख प्रतिनिधि छंद 'गाहा' (गाथा) है। इस परंपरा के छंदों का विकास हमें बुद्ध के समय में नहीं मिलता, यहाँ तक कि भरत के नाट्यशास्त्र में भी ध्रुवा-गीतियों में प्रयुक्त गेय पदों की रचना भी मात्रिक पद्धति की न होकर वणिक पद्धति की ही है । नाट्यशास्त्र के बत्तीसवें अध्याय में विवेचित प्राकृत भाषा की ध्रुवा-गीतियाँ प्रायः गायत्री, उष्णिक्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिजगती आदि वर्णिक छंदों की ही मूलभित्ति पर आधृत है । (दे० भरत : नाट्यशास्त्र ३२, ४७-३२४) इससे ऐसा पता चलता है कि प्राकृत में प्रचलित आर्यावर्ग के छंद भरत के समय तक विशेषत: मान्य न हो पाये थे, किंतु कालिदास के समय 'गाहा' तथा उसके भेदोपभेद अत्यधिक प्रचलित हो गये हैं । शाकुंतल में प्राकृत तथा संस्कृत दोनों भाषाओं में इस छंद के शुद्ध तथा अन्य रूपों का अनेकशः प्रयोग मिलता है । कालिदास के शाकुन्तल के उद्गाथा (गीति भेद) का उदाहरण यह है :
तुज्झ ण जाणे हिअअं, मम उण कामो दिवावि रत्तिम्मि ।
णिग्घिण तवइ बलीअं, तुइ वुत्तमणोरहाइँ अंगाई ।। (अभि० ३-१३) वहीं से संस्कृत भाषा में निबद्ध 'गाथा' (आर्या) का उदाहरण यह है :
उत्सृज्य कुसुमशयनं, नलिनीदलकल्पितस्तनावरणम् ।
कथमातपे गमिष्यसि, परिबाधापेलवैरङ्गैः ॥ (वही ३-१९) । हमारा ऐसा अनुमान है, गाथा-वर्ग के मात्रिक जातिच्छंद मूलतः लोक-गीतों के छंद रहे हैं, जिनकी जन्मभूमि आन्ध्र या महाराष्ट्र जान पड़ती है। संभवतः गाथा वैदिक या आर्य परम्परा का छंद न होकर द्रविड़ परंपरा की देन है। इस छंद का प्रचलन भी सर्वप्रथम महाराष्ट्री प्राकृत के लोकगीतों में हुआ जान पड़ता है। वहीं से यह कालिदास को भी मिला है। हाल की गाथाओं में ही इस छंद (गाहा) का प्राचीनतम प्राकृत रूप देखने को मिलता है । यही 'गाहा' छंद प्राकृत के अधिकांश मात्रिक छंदों का मूलस्रोत है। प्राकृत के अन्य छंद गाहा, विगाहा, उग्गाहा (उद्गाथा), गाहिनी, सिंहिनी, खंधअ (स्कंधक) सभी प्रायः इसी के मात्रिक गणों को हेर फेर करने से या पूर्वदल या उत्तर दल के हेर फेर से बने हुए हैं। प्रवरसेन के 'सेतुबंध' का खास छंद 'स्कंधक' है, जो गाथा का ही प्रस्तारभेद है। प्रवरसेन के प्राकृत महाकाव्य के सभी आश्वासक (सर्ग) स्कंधक छन्दों में ही निबद्ध है। सिर्फ द्वितीय, तृतीय तथा सप्तम आश्वासक में ही कुछ भिन्न छन्दोबद्ध पद्य मिलते हैं। इन पद्यों का छंद 'गलितक' है; किंतु इन पद्यों को हेमचन्द्र ने प्रक्षिप्त घोषित किया है ।' वाक्पतिराजने अपने 'गउडवहो' काव्य में केवल 'गाहा' छंद को ही चुना है।
अपभ्रंश काल में 'गाहा' छंद जैन धार्मिक साहित्य में विशेष आदरणीय रहा है; अपभ्रंश काव्यों में कवियों ने इनका प्रयोग किया तो है, किंतु बहुत कम । हेमचन्द्र के 'कुमारपालचरित' में प्रथम सात सर्गों में 'गाहा' तथा उसके प्ररोहों का ही प्रयोग किया गया है; आठवें सर्ग के आरंभिक अंश में भी, प्राकृत भाषा वाले अंश में, प्राकृत छंद ही अपनाये गये है, शेष अंश में (८-१४ से ८-८३ तक) अपभ्रंश छंदों को लिया गया है। इससे ऐसा पता चलता है कि अपभ्रंश कवि प्रायः अपभ्रंश भाषा में लिखते समय प्राकृत छंद नहीं अपनाते, तथा गाहादि प्राकृत छंदों का प्रयोग करते समय वे भाषाशैली की दृष्टि से भी प्राकृत का ही प्रयोग करते हैं। हम देखते हैं कि 'संदेशरासक' तक में 'गाहा' छंदों की भाषा-शैली प्राकृत या प्राकृतनिष्ठ है और यह परंपरा हमें पुरानी हिंदी के कवियों ही नहीं परवर्ती डिंगल कवियों (जैसे सूर्यमल्ल) तक में दिखाई पड़ती है। वैसे हिंदी के आधुनिक कवियों तक में एक आध ने गाथा छंद का प्रयोग किया है, पर असलियत तो यह है कि प्राकृत छन्दःपरम्परा के अतुकांत मात्रिक जातिच्छन्द खड़ी बोली हिंदी में (या ब्रजभाषा में भी) नहीं फबते ।
यह एक वर्ण की कमी तथा 'निसेस' में 'नी' का दीर्घ होना जहाँ ह्रस्व अक्षर चाहिए प्राकृत कवियों की वर्णिक छंदों में भी बरती गई स्वतन्त्रता का संकेत करता है। किंतु यह छूट प्रायः बौद्ध तथा जैन धार्मिक कवियों में ही मिलती है, राजशेखरादि
परिनिष्ठित प्राकृत कवि गणव्यवस्था की पूरी पाबंदी करते देखे जाते हैं।
१. दे० अनुशीलन 8 १३७. . Jain Education International For Private & Personal Use Only
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