Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम्
$ १३५. संस्कृत छन्दः शास्त्रियों ने हस्व अक्षर को दीर्घ तथा दीर्घ को ह्रस्व बना देने की छूट प्रायः नहीं दी है। वैसे 'अपि माषं मषं कुर्याच्छन्दोभंगं न कारयेत्' वाले नियम को फिर भी अच्छा नहीं माना जाता था । अतः संस्कृत काव्यों में दीर्घ का ह्रस्व बनाकर पढ़े जाने वाले स्थल प्रायः नहीं मिलते। महाकवि भट्टि के 'रावणवध' में एक स्थल अवश्य पाया जाता है.
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निकृत्तमत्तद्विपकुंभमांसैः संपृक्तमुक्तैर्हरयोऽग्रपादैः ।
आनिन्यिरे श्रेणीकृतास्तथान्यैः परस्परं वालधिसन्निबद्धाः ॥ (१९-४२).
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यहाँ ' श्रेणीकृताः' में च्चि-प्रत्यय होने के कारण व्याकरणिक दृष्टि से यही रूप शुद्ध है, किंतु छन्दोभंग के कारण उच्चारण में 'श्रेणिकृताः ' पढ़ना होगा। अपभ्रंश में आकर दोर्घ अक्षर को हस्व तथा ह्रस्व को दीर्घ बना देने की प्रवृति प्रमुख छन्दोगत विशेषता बन बैठी है अपभ्रंश छन्दों के मूलतः लोकगीतों की गेय प्रवृत्ति से प्रभावित होने के कारण उनमें अक्षर की व्याकरणिक ह्रस्वता या दीर्घता का इतना महत्त्व नहीं है, जितना उसकी उच्चारणगत ह्रस्वता या दीर्घता का । तत्तत् छन्द की ताल की संयोजना के लिये अपभ्रंश कवि, जो स्वयं कुशल गायक भी था, लिखित अक्षरों के ह्रस्व-दीर्घत्व में आवश्यकतानुसार हेर फेर कर सकता था। प्रा० पै० में भी इस छूट का संकेत मिलता है:
इस नियम में न केवल दीर्घ अक्षर को लघु पढ़ने की ही छूट दी गई है, बल्कि अनेक (दो-तीन) वर्णों को एक ही मात्रा में पढ़कर एक ही वर्ण मानने की भी रियायत दी गई है। इसी के आधार 'अरेरे वाहहि काण्ह णाव छोडि डगमग कुगति ण देहि' में 'अरेरे' तथा 'डगमग' का त्वरित उच्चारण ही माना गया है।"
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आधुनिक भारतीय भाषाओं में हिंदी ने कुछ स्थानों में इस प्रकार की छूट मानी अवश्य है, किंतु प्राय: इस प्रकार की छूट को हिंदी विद्वान् दोष ही मानते हैं तथा यह छूट केवल मात्रिक वृत्तों और सवैया, घनाक्षरी जैसे मुक्तक वर्णिको में ही पाई जाती है । संस्कृत वर्णिक वृत्तों में हिंदी कवियों ने इस रियायत का प्रयोग करना दोष माना है । जब कि गुजराती कविता ने इस छूट को नियमतः स्वीकार किया है तथा वहाँ संस्कृत वर्णिक छंदों में भी हस्व को दीर्घ, तथा दीर्घ को ह्रस्व बना देने की व्यवस्था पाई जाती है ।
छन्दों में यति-नियम
$ १३६. वर्णिक छन्दों का यति विधानः - संस्कृत वर्णिक वृत्तों में यति का नियम अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है तथा प्रायः सभी छन्दशास्त्री इस नियम की अवहेलना को छन्दोदोष मानते हैं। वैदिक वर्णिक वृत्तों के लक्षणों में, प्रातिशाख्यों में भी, यति का संकेत मिलता है। वैदिक मंत्रों में ग्यारह वर्ण के त्रिष्टुप् छंद में चतुर्थ या पंचम वर्ण के बाद यति का नियमतः अस्तित्व पाया जाता है ।" इन्हीं चौथे वर्ण वाली यति के त्रिष्टुप् छन्दों का विकास शास्त्रीय संस्कृत छन्दः परम्परा में शालिनी के रूप में, तथा पाँचवें वर्ण वाली यति के त्रिष्टुप् छन्दों का विकास इन्द्रवज्रा - उपेन्द्रवज्रा के रूप में हुआ
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जइ दीहो विअ वण्णो लहु जीहा पढइ होइ सो वि लहू वो वि तुरिअपढिओ दोत्तिणि वि एक्क जाणेहु ॥ (१.८)
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a poet singer may take liberties with pronunciation of short and long letters, or may squeeze several letters within a group of Matras, which ordinarily would admit the pronunciation of only half of them, but in any case he would not do it in an awkward manner".
Velankar: Apabhramsa Metres. (Radhakumud Mukherji comm. Vol. Part II p. 1068). दे० प्रा० ० मात्रावृत्त १.९ की व्याख्या पृ० ११-१२
भिखारीदास छन्दार्णव (२.१)
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"गुजरातीमां कविने लघुनो गुरु अने गुरुनो लघु करवानी जे हद विनानी छूट मलायेली छे, ते गुजरातीने प्राकृत अपभ्रंशना वारसामां मलेली छे. नवा उच्चारशुद्धिना आग्रहथी कविए एने अंकुशमां लेवानी छे अने कर्णकटुत्वना दोषथी तेने बचाववा सदा जागृति राखवानी छे." रा० वि० पाठक: बृहत् पिंगल पृ० ४६
Verses of eleven syllables have caesure, which follows either the fourth or the fifth syllable." - Macdonell : Vedic Grammar p. 440
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