Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् (२) स्रक :- अपि सहचरि, रुचिरतरगुणमयी, म्रदिमवसति, रनपगतपपरिमला ।
स्रगिव वसति, बिलसदनुपमरसा, सुमुखि मुदित-, दनुजदलहृदये ॥ (३) मणिगुणनिकर :- नरकरिपुरवतु, निखिलसुरगति- रमितमहिमभर-, सहजनिवसतिः ।
अनवधिमणिगुण-, निकरपरिचितः, सरिदधिपतिरिव, धृततनुविभवः ॥
छन्दों की गति के आधार पर ही कई संस्कृत वर्णिक वृत्तों का नामकरण तक पाया जाता है, द्रुतविलम्बित, भुजंगप्रयात, हरिणीप्लुता, मंदाकान्ता, शार्दूलविक्रीडित जैसे नाम तत्तत् छन्द की गति (cadence) के आधार पर ही दिये गये हैं । शार्दूलविक्रीडित का यह नाम इसलिये रक्खा गया है कि जैसे शेर की छलांग बारह हाथ की होती है, वैसे ही इस छन्द के प्रत्येक चरण में बारह वर्गों को एक साँस में पढ़ने के बाद, तब पाठक यति का प्रयोग कर बाकी सात वर्ण पढ़ता है।
संस्कृत छन्दःशास्त्रियों ने यति के विषय में यह नियम बना दिया है कि यति का निर्वाह सविभक्तिक पद के बीच न किया जाय, ऐसा न हो कि पद को तोड़कर उसके बीच यति का प्रयोग किया जाय । इसी तरह किसी संधि के स्थलों पर भी जहाँ दो स्वर मिलकर एकाक्षर हो जायँ, वहाँ भी यति का प्रयोग न किया जाय; किंतु समासान्त पद के पूर्व पद तथा उत्तर पद के बीच यति का विधान अवश्य किया गया है। इसका स्पष्टीकरण निम्न दो उदाहरणों से हो सकता है :
(१)
संतुष्टे तिसृणां पुरामपि रिपो कंड्रलदोर्मण्डलीलीलालूनपुन:प्ररूढशिरसो वीरस्य लिप्सोर्वरम् । याच्यादैन्यपराञ्चि यस्य कलहायन्ते मिथस्त्वं वृणु, त्वं वृण्वित्यभितो मुखानि स दशग्रीवः कथं कथ्यताम् ॥
साध्वी माध्वीक चिन्ता न भवति भवतः शर्करे कर्कशासि, द्राक्षे द्रक्ष्यन्ति के त्वाममृत मृतमसि क्षीर नीरं रसस्ते । माकन्द कन्द कान्ताधर धरणितलं गच्छ यच्छन्ति यावद्
भावं शृङ्गारसारस्वतमिह जयदेवस्य विष्वग्वचांसि ।। इन दोनों पद्यों में क्रमशः 'कलहा-यन्ते', दश-ग्रीवः' 'शृंगारसारस्वत', 'जयदे-वस्य' इन स्थलों पर यति-विधान पाया जाता है। इनमें 'दश-ग्रीवः' यति समास के कारण निर्दुष्ट है, क्योंकि 'दश' पर पूर्वपद समाप्त हो जाता है। 'सारस्वत' में यद्यपि यति का प्रयोग प्रकृति (सारस् < सरस्) तथा प्रत्यय (वत्) के बीच पाया जाता है, फिर भी यह श्रवणकटु लगती है तथा भाषा के व्याकरणिक ज्ञानवाले व्यक्ति को भी खटकती है । 'कलहा-यन्ते', 'जयदे-वस्य' इन दो पदों को बीच में तोड़कर यति का विधान तो छन्द के समस्त माधुर्य को ही समाप्त करता जान पड़ता है।
प्रा० पैं० के लक्षण पद्यों में वर्णिक छंदःप्रकरण में प्रायः यति का संकेत नहीं किया गया है, किन्तु उदाहरणों में यति की रक्षा पाई जाती है । भिखारीदास ने छन्दार्णव में वर्णिक वृत्तों की यति का प्रायः सर्वत्र उल्लेख किया है । उदाहरणार्थ, मालिनी के प्रसंग में :
नगन नगन कर्नो, मो यगंनो यगंनो, विरति रचित आठै, और सातै बरंनो ।
सुमन गुननि लैक, हारही डालिनी है, सरस सुरस बेली, पालिनी मालिनी है ।। (१२.५२)२ १. 'व्याघ्रस्य प्लुतिर्द्वादशहस्तेति प्रसिद्धादशाक्षरेषु यतिमच्छार्दूलविक्रीडितम् ।"
पिंगलछन्दःसूत्र (प्रस्तावना) पृ० ७ (निर्णयसागर, १९३८) २. साथ ही दे०- छन्दार्णव १२.५८, ६६, ७०, ७२, ७४, ९२, १०६ आदि ।
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