Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् का छन्द: शास्त्रीय अनुशीलन
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या भगण (SII) पर आधृत है, बाकी शेष भेद उसी के प्ररोह हैं। इन गणों की रचना स्वयं लघूच्चारण बाहुल्य के कारण उद्धत वृत्ति के भावों के उपयुक्त नहीं जान पड़ती। मेरी जानकारी में इस छंद का उद्धत भावों में बहुत कम प्रयोग किया गया है और जो है वह सफल नहीं कहा जा सकता । मतलब यह है कि छन्द के 'पैटर्न' में लघु गुरु उच्चारण की मात्रा तथा नियत स्थान पर योजना का छन्द को गति देने में खास हाथ रहता है और छंद की गति और लयात्मक "पैटर्न" इसी पर टिके रहते हैं।
समग्र छंद की लय की व्यवस्था के लिए कई तत्त्व जिम्मेदार होते हैं। प्रत्येक वर्णिक या मात्रिक छंद के अंतर्गत हर चरण को कई टुकड़ों में बाँटा जा सकता है। यह विभाजन वर्णिक छंदों में वर्णिक गुणों तथा मात्रिक छंदों में द्विकलादि मात्रिक गणों के अनुसार किया जाता है। तत्तत् टुकड़े की निजी स्वर-लहरी तथा उसका अन्य गत तथा आगत टुकड़ों की तत्तत् स्वर-लहरी के संयोग से मिलकर प्रस्तुत समग्र एकतानता, सम्पूर्ण चरण की लय की व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योग देती है। इसी तरह एक ही चरण में विविध स्थानों पर यति की संस्थापना का भी इसमें हाथ रहता है। इतना ही नहीं, पूरे छंद के चरणों की गति भी समग्र छंद की गति या 'कैडेंस' में नवीनता ला देती है। यह बात सभी प्रकार के द्विपात्, चतुष्पात् या अधिक चरणों वाले छंदों पर लागू होती है। मिश्र छंदों में भी जब दोहा तथा रोला, रोला तथा उल्लाला, दोहा तथा गाथा, मात्रा तथा दोहा जैसे अनेक छन्दों के संकीर्ण छंदों की रचना की जाती है, तो उनकी गति सर्वथा नवीन संगीत को जन्म देती है। कुंडलिया छंद की लय वस्तुतः केवल दोहा तथा रोला छंदों की गतियों का योग (sum total) मात्र नहीं है, न छप्पय छंद की लय केवल रोला तथा उल्लाला छन्दों की गतियों का योग ही है। इतना ही नहीं, मात्रिक छंदों में एक ही छंद के विविध भेदों में भी गति तथा लय का संगीतात्मक विभेद स्पष्ट मालूम पड़ता है। दोहा, रोला, छप्पय, आदि छंदों के छन्दः शास्त्रियों ने लघु गुरु अक्षरों की गणना के अनुसार अनेक भेद किये है। ये भेद वैसे तो अंकगणित के खयालीपुलाव जान पड़ते हैं, पर इनका केवल इतना ही महत्त्व नहीं है। मात्रिक छंदों के बारे में यह स्पष्ट है कि जिन छंदों में लघ्वक्षरों की संख्या जितनी अधिक होगी, वे उतने ही अधिक श्रवणमधुर, रमणीय तथा कलात्मक होंगे। तुलसीदास की निम्न दो चौपाइयों और दोहों की तुलना से यह स्पष्ट हो जायगा । मात्राओं की संख्या दोनों में स्थान होने पर भी उनकी संगीतात्मक गति और गूँज में स्पष्ट भेद हैं :
(१)
(२)
(३)
(२)
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि ।
कहत लखन सन राम हृदयँ गुनि || ( मानस : बालकाण्ड)
काचे घट जिमि डारौं फोरी ।
सकउ मेरु मूलक जिमि तोरी ॥ (वही)
तमकि धहि धनु मूढ नृप उतई न चलहि लजाइ । मनहुँ पाइ भट बाहुबल अधिकु अधिकु गरुआ || ( वही )
हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान ।
जेहिं मारे साइ अवतरेठ कृपासिंधु भगवान ॥ (वही, लंकाकांड)
उक्त चौपाइयों में प्रथम अर्धाली की प्रथमपंक्ति में ३ ग १० ल तथा द्वितीय पंक्ति १ ग १४ ल है; जब कि द्वितीय अर्धाली की प्रथम पंक्ति में ६ ग, ४ल; तथा द्वितीय पंक्ति में ४ ग, ८ ल हैं। इस लघु गुरु अक्षरों की विविध योजना से इनकी गति में क्या फर्क पड़ता है, यह स्वतः संवेद्य है । इसी तरह पहले दोहा में ५ गुरु तथा ३८ लघु (४८ मात्रा) पाये जाते हैं; जब की दूसरे में ११ गुरु तथा २६ लघु है। यहाँ 'जहिं सोह, अवतरेठ' में क्रमशः 'ए, ओ, ए' का उच्चारण एक मात्रिक (ह्रस्व) ही है, द्विमात्रिक नहीं । छन्दः शास्त्रियों के मतानुसार पहला दोहा 'अहिवर' नामक भेद है, दूसरा 'चल' नामक भेद । दोनों की गति या 'कैडन्स' का फर्क कुशल पाठकों और श्रोताओं को स्पष्ट मालूम पड़
जायगा ।
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वर्णिक छंदों में विविध गणों की मैत्री, शत्रुता, उदासीनता आदि का विचार भी वस्तुतः छंदों की गति या लय को श्रवणमधुर बनाने के दृष्टिकोण से ही किया गया है। जहाँ तक तत्तत् गणों के एक साथ नियोजित करने पर उसके सुखदुःखादि फलों का प्रश्न है, छन्दः शास्त्र का यह अंश वैज्ञानिक नहीं जान पड़ता, उसका वही नगण्य महत्त्व है, जो
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