Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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पद-विचार ४९७ की भाषा अपभ्रंश का पल्ला नहीं छोड़ पाई है, जब कि प्रा० पै० की भाषा ने अपभ्रंश के कई पूर्वकालिक रूपों को नहीं अपनाया है । यद्यपि यहाँ 'इ वाले रूपों के अलावा अन्य रूप, ऊण वाले प्राकृत रूप तथा 'इअ वाले म० भा० आ० (प्राकृतापभ्रंश) रूप, भी मिलते हैं, किंतु प्रधानता 'इ-रूपों की ही है । प्रा० पैं० के पूर्वकालिक रूप निम्न हैं :(१) कण :- प्रा० पै० में यह केवल प्राकृत गाथाओं में मिलता है। इसके दो एक उदाहरण की है। 'ऊण की उत्पत्ति पिशेल ने *त्वानं से मानी है (दे० पिशेल $ ५८४) । इसके उदाहरण हैं :
सोऊण (१.६९) < श्रुत्वा .
हसिऊण (१.७१) < हसित्वा.
(२) 'इअ :- हम प्राकृत में इस प्रत्यय का संकेत कर चुके हैं। इसका संबंध संस्कृत 'य ( ल्यप्) से है । प्रा० पैं० में इसके उदाहरण संख्या में दूसरे स्थान पर माने जा सकते हैं ।
उदाहरण निम्न हैं
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कप्पिअ (१.७१) < कल्पयित्वा आवज्जिअ (१.१२८ ) < आवर्ज्य, कट्टि (१.१३४) < कर्तित्वा, किअ (२.५६)
कृत्वा,
वज्जिअ (१.२०७ ) < वर्जित्वा.
(३) इ :- इसका विकास डा० चाटुर्ज्या ने इस क्रम से माना है
:
प्रा० भा० आ० °य > म० भा० आ० °इअई इ. उदा० *कार्य (= कृत्वा) > म० भा० आ० करिअ > करी > करि ।"
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जागी
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प्रा० पै० में हमें दो उदाहरण इस मध्यवर्ती स्थिति ई के भी मिले हैं, जिनका संकेत पहले कर देना ठीक होगा :जाणी (२.२८), दई (२.५४) । इस तरह के °ई वाले पूर्वकालिक रूप ढोला मारू रा दोहा में भी मिलते हैं। हाथ मळेहि, बिलखी हुई, वल्लहा (दो० ३७८), जहाँ 'जागी' का विकास 'जागिअ' (= जाग कर) से हुआ है। प्रा० ० में के रूपों के अनेक उदाहरण है, प्रा० ० में ब्रजभाषा की तरह केवल 'इ रूप ही मिलते हैं; खड़ी बोली हिंदी के 'अ वाले रूप (यथा बोल कर हँस कर तथा पूर्वी राजस्थानी के भी 'अ वाले रूप (यथा बोल' र हँस' र, खा' र, पी' र, जहाँ 'र' वस्तुतः 'कर' से संबद्ध न हो कर राजस्थानी समुच्चयबोधक अव्यय (अर = हि० और) का हरवीभूत रूप है :- 'बोल' र जासी बोल अर जासी, रोटी खा'र पाणी (उ० फाणी) पीसी-रोटी खा अर पाणी पीसी) प्रा० पै० में नहीं मिलते हैं। इस दृष्टि से प्रा० पै० की भाषा पुरानी ब्रजभाषा का प्रतिनिधित्व करती है ।
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प्रा० पैं० से ये उदाहरण निम्न हैं
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देइ (१.९), लोपि (१.४१), दइ (१.४२, २.९५ ) < देइ देइअ (दत्त्वा), लइ (१.४१, १०६, १३४ ) - लेइ < लेइअ (= लात्वा), पलट्टि (१.५१), रुवि (१.८५), करि (१.९७), धरि (१.९७), समदि (१.१०६) < संमर्द्य, ठेल्लि (१.१०६), पेल्लि (१.१०६), मुक्ति (१.१४५), कोप्पि (१.१५७) < *कुप्य (कुपित्वा), कइ (१.१३४) < कइअ ( = कृत्वा), विचारि (१.१३४), जाणि (१.१४९), संघारि (२.२० ) < संहृत्य, रचि (१.६०), साजि (१.१५७), जिणि (२.१११ ) < जित्वा सुसज्ज (२.१७१) ८ सुसज्ज्य धाइ (२.१५९) धावित्वा, आइ (२.१५९), पाइ (२.१५९), संतावि (१.१५४).
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इसके साथ ही दो एक उदाहरण प्रा० पै० में ऐसे मिले हैं, जो पूर्वकालिक क्रिया के संयुक्त रूप का संकेत करते हैं। खड़ी बोली हि० में हम 'कर' या 'के' का प्रयोग पूर्वकालिक किया रूप के साथ देखते हैं, यथा- 'वह पढ़ कर चला गया, वह खाना खाके बाजार गया इस तरह के प्रयोग दक्खिनी हिन्दी में भी मिलते हैं 'मिला के एक करे' 'तसलीम कर कर' । इस तरह के रूप ब्रजभाषा में भी मिलते हैं मारि, मारि कै, मारि करि (= हि० मार कर) । प्रा० पैं० में इससे मिलते जुलते रूप संठावि कइ ( १ . १५४ ) - संस्थाप्य कृत्वा' तथा 'कट्ठि कए (१.२०५ ) < कृष्ट्वा कृत्वा' मिले हैं। ये उदाहरण प्रा० पैं० की भाषा में हिंदी की आधुनिक प्रवृत्तियों के बीज का संकेत करते हैं। इस संबंध में इतना संकेत कर देना अनावश्यक न होगा कि यह प्रवृत्ति संदेशरासक की भाषा तक में मिली है, जहाँ
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१. Uktivyakti (Study) $ 80
२. सक्सेनाः दक्खिनी हिंदी पृ० ५९
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