Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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पद-विचार
४८९ मध्यम पुरुष ए० व०
(१) "हि, इसकी उत्पत्ति प्रा० भा० आ० के विकरणहीन (एथेमेटिक) धातु के आज्ञा मध्यम पु० ए० व० तिङ् चिह्न -धि (जुहुधि, अद्धि, कृधि) से मानी जाती है ।
(२) "सु, इसकी उत्पत्ति प्रा० भा० आ० के आत्मनेपदी आज्ञा म० पु० ए० व० 'स्व' (ष्व) से है। पिशेल के अनुसार यही 'स्व' >सु हो गया है । (पिशेल $ ४६७) इसका विकास स्व > स्सु (पालि रूप) > सु के क्रम से हुआ है।
(३) "उ इसका सम्बन्ध भी 'स्व' से ही जोड़ा जाता है। डा० चाटुा ने उक्तिव्यक्ति की भाषा के °उ (मध्यम पु० ए० व० आज्ञा) की व्युत्पत्ति यों मानी है। प्रा० भा० आ० 'कुरुष्व' > म० भा० आ० करस्सु > *करहु > करु ।।
(४) °ओ को उक्त उ (३) का ही विकसित रूप मानना होगा, करहु > करउ > करो । (५) इ वाले रूप प्रा० पैं० में एक आध मिलते हैं। इनको "हि (१) वाले रूपों से विकसित माना जा सकता है। प्रा० भा० आ० धि > अपभ्रंश अवहट्ट "हि > °इ) (ठीक उसी तरह जैसे 'करहु' से 'करु' का विकास हुआ है)।
(६) शून्यरूप :- इनका विकास प्रा० भा० आ० अ- (पत्-पठ, Vभू, भव) से माना जाता है। प्राकृतकाल में धातु के अदन्त होने के कारण यहाँ यह °अ > ०हो गया (Vकर + ० = कर, Vपढ + ० = पढ, Vहो + ० = हो)। अपभ्रंश तथा न० भा० आ० में भी ये रूप सुरक्षित हैं । न० भा० आ० चल < म० भा० आ० चल < प्रा० भा० आ० चल ।
इनके उदाहरण निम्न है :
कुणेहि (१.९२), जाहि (१.१५७), कहेहि (१.१७३), भणहि (२.५६), करहि (२.१९०), सुणहि (२.१९३), देहि (१.९), लेहि (१.९), पेक्खहि (१.६७), मुंचहि (१.७१), जाहि (१.१५७), समप्पइ (१.१३२), लेक्ख उ (१.१२९), भणु
5 (२.४७), पाउ (२.१४), सुमरु (१.१५८), भणउ (२.६०), विआरु (१.१४८), कहु (२.८१), कहू (= कहू २.९४), परिहरु (१.१६९), बुज्झउ (१.१९६), मुणो (२.१२७), विआरि (१.८१), गुणि (२.५६), थप्पि (१.१५७), पढ (१.१०८ अ), बुज्झ (१.१०९), भण (१.११२), थप्प (२.६२), हर (२.६), रक्ख (२.५१), उपपेक्ख (२.५१) जाण (१.४६), विआण (१.९५), माण (२.७०) । मध्यम पु० ब० व०
"ह 'हु-इनका संबंध ए० व० के रूप °स्व से ही जोड़ा जाता है, जो ब० व० के साथ भी प्रयुक्त होने लगा है। टगारे ने इसकी व्युत्पत्ति *अथु < प्रा० भा० आ० (अ) थ वर्तमान म० पु० ब० व० तथा -3 (< तु) से जोड़ी है।
__कुणह (१.२०, १.५९), पणमह (२.१०९), पमाणह (१.१२१ < प्रमाणयत), जाणेहु (१.१८), जाणहु (१.३९), मुणेहु (१.४२), लिहहु (१.४६), पुरहु (१.४७), थप्पहु (१.४८) लुप्पहु (१.४८) । भविष्यत् काल
६ १०६. म० भा० आ० में भविष्यत् के दो प्रकार के रूप मिलते हैं :- (१) स्स रूप, (२) ह रूप । (दे० पिशेल $ ५२०, टगारे, $ १३९) । स्स का विकास प्रा० भा० आ० 'स्य' से हुआ है। ह वाले रूपों की व्युत्पत्ति संदिग्ध है। हिंदी में भविष्यत् के रूप वर्तमान के साथ ही 'गा-गे-गी' (गतः > गअ > गा, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत) को जोड़ कर बनाये जाते हैं। अत: म० भा० आ० के रूप वहाँ विकसित नहीं हुए। राजस्थानी में -स वाले रूपों का विकास पाया जाता है।
(१) पुण्यवंत प्रीति पामस्यइ, वली वंसि गढ ताहरइ हुस्यइ (कान्हडदे० ४.१९७) । (२) कहइ पीठि अम्हे जास्यूं आज (वही, ४.१९८) ।
(३) भीभल नयण सुर्वक धण, भूलउ जाइसि संग (ढोला, २२९) अवधी में भविष्यत् में एक ओर 'ह वाले रूप, दूसरी ओर ब (कर्मवाच्य भविष्यत्कालीन कृदंत 'तव्य' से विकसित ) रूप मिलते हैं। ब वाले कृदंत रूपों का १. Tagare $ 138, p. 297
२. Uktivyakti : (Study) $74, p. 59
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