Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतगलम् अकारांत शब्दों के कर्म ब० व० रूपों को छोड़ कर) । (२) °आन् (आ० भा० यू० *ओन्स्; सं० वृकान् <आ० भा० यू० *व्लुकोन्स्), अकारांत पुल्लिंग शब्दों के केवल कर्म कारक ब० व० में; (३) °आनि, नपुंसक लिंग शब्दों के कर्ताकर्म-संबोधन ब० व० में । प्रथम म० भा० आ० (प्राकृत) में भी इन तीनों कारकों में ब० व० के रूप प्रायः एक से होते हैं, वैसे अकारांत पुल्लिंग रूपों में कर्ता-संबोधन ब० व० के रूप एक होते हैं, कर्म कारक के भिन्न । प्राकृत में इनके प्रत्यय ये हैं :- (१) प्रातिपदिक के पदांत स्वर का दीर्घ रूप 'पुत्ता, अग्गी, वाऊ, (पुत्राः, अग्नयः, वायवः)'; (२) -णो, -ओ, -अओ, -अउ, अकारांतेतर पुल्लिंग शब्दों के साथ ही; अग्गिणो-वाउणो, अग्गीओ-वाऊओ, अग्गओवाअओ, अग्गउ-वाअउ, जैसे रूप । इनमें -णो के अतिरिक्त अन्य रूप -ओ, -उ तथा दीर्घ रूप स्त्रीलिंग शब्दों में भी पाये जाते हैं । माला-मालाओ-मालाउ, कत्तीओ (कृत्तयः), रिद्धीओ (ऋद्धयः), णईओ, णारीओ, इनमें -उ वाले रूप केवल पद्य की भाषा में मिलते हैं । (३) -आई, नपुंसक लिंग शब्दों में, इसका विकास प्रा० भा० आ० 'आनि' से हुआ है, फलाई, जैनमहा० जैन शौर० तथा अर्धमागधी में -आणि' रूप भी मिलते हैं, -फलाणि । (४) -ए यह केवल अकारांत पुलिंग का कर्म कारक ब० व० का चिह्न है, पुत्ते (=पुत्रान्) ।
अपभ्रंश में इसके तीन चिह्न पाये जाते हैं :- (१) अकारांत शब्दों में पदांत स्वर का दीर्घ रूप (आ- वाले रूप), (२) शून्य रूप; (३)-ए, -एँ (कर्म कारक में), -एउ (कर्ता कारक में), ये रूप केवल पूर्वी अपभ्रंश में पाये जाते हैं, यथा जप-होम, केसें (केशान्) बरणाल (कर्म कारक रूप), चउब्बेउ (कर्ता कारक) < चतुर्वेदिनः; (४) - इँ वाले रूप; नपुंसक में-दव्वइँ, दुहइँ, पुण्णइँ (द्रव्याणि, दुःखानि, पुण्यानि) । (५) -हु; ये रूप अन्य रूपों के साथ संबोधन ब० व० के वैकल्पिक रूप है, जोइय-हु (हे योगिनः), पंडिअ-लोअ-हु (हे पंडिताः, हे पंडितलोकाः) ।।
प्रा० ० की भाषा में निम्न चिह्न पाये जाते हैं :- (१) -आईं रूप, जो शुद्ध प्राकृत के रूप हैं, तथा इनके अपभ्रंश -अइँ रूप । इनका प्रयोग लिंगव्यत्यय के कारण पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग अकारांत रूपों में भी मिल जाता है। साथ ही इनके अननुनासिक रूप -आइ, -आई भी । (२) दीर्घ रूप; (३) 'ह' वाले रूप; (४) शून्य रूप, (५) ए रूप ।
(१) -आइँ, -आइ, -आई वाले रूपों के उदाहरण ये हैं :
कुसुमाइँ (१.६७) < कुसुमानि, मत्ताइँ (१.५७, ६६) मात्राः (लिंगव्यत्यय), रेहाइँ (१.५८) < रेखाः (लिंगव्यत्यय), सत्ताईसाई (१.६६) < सप्तविंशति, णअणाइँ (१.६९)< नयनानि, वअणाइ (१.७१) < वदनानि, णामाई (१.८९) < नामानि, अट्ठाइँ (१.१००) < अष्ट, दहपंचाइ (१.१४१) < दशपंच (=पन्द्रह), दुक्खाइँ (२.२०) < दुःखानि, समग्गाइँ (२.२२५) < समग्राणि, हत्थिजूहाइं (२.१३२) < हस्तियूथानि, पाइक्कवूहाई (२.१३२) < पदातिव्यूहानि ।
-णि वाला नपुंसक लिंग रूप केवल एक बार पाया जाता है, पअणि (१.८६) (< पआणि < पदानि) । (२) आ वाले रूप (दीर्घरूप) :- इसके कतिपय उदाहरण ये हैं :
सजणा (१.९४) < सज्जनाः, चरणा (१.९४)< चरणान्, मत्ता (१.१३९) मात्राः, बुहअणा (१.१५३) < बुधजनाः, कइअणा (१.१३५) < कविजनाः, णीवा (१.१६६)< नीपाः, गुरुआ (१.१८७) < गुरून्, कइत्तआ (२.३२) < कवित्वानि, गुणा (२.५३) गुणाः, करा (२.५५) < कराः, छेआ (२.११६) < छेकाः ।
(३) -ह रूप, ये वस्तुतः संबंध कारक के रूप हैं, जिनका प्रयोग कर्ता कारक ब० व० में पाया जाता है । ये -ह वाले रूप संदेशरासक में भी मिले हैं । (दे० भायाणी ६ ५१ (३)) संदेशरासक से इनके उदाहरण ये दिये जा सकते हैं :- अबुहत्तणि अबुहह णहु पवेसि (अबुधत्वेन बुधाः न खलु प्रवेशिनः, २१); पयहत्थिण किय पहिय पयहि पवहंतयह (पादत्राणहस्ताः कृताः पथिकाः पयसि (अथवा, पथि) प्रवहन्तः (=संचरन्तः, १४१)। पुरानी मैथिली में भी 'आहअह' रूपों का कर्ता कारक ब० व० में प्रयोग देखा गया है । (दे० वर्णरत्नाकर की भूमिका ६ २६) डा० चाटुा ने इन्हें अपभ्रंश के सम्बन्ध कारक ए० व० के -ह वाले रूपों से जोडा है। प्रा० पैं० में इनके उदाहरण कम हैं :
राअह (१.१८०) < राजानः, मेछह (१.२०७) < म्लेच्छाः , मत्तह (२.१७०) < मात्राः । १. Pischel : $8367-68,8372, $8 380-81 २. ibid:8387
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