Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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पद-विचार
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(३) मध्यम पुरुष ए० व०
प्रा० भा० आ० में वर्तमान के म० पु० ए० व० का प्रत्यय 'सि (करोषि, पठसि, भवसि) था । म० भा० आ० में यह अपरिवर्तित रहा है। किंतु अपभ्रंश में "सि के साथ हि वाले रूप भी मिलते हैं। पिशेल ने 'ग्रामातीक देर प्राकृत स्प्राखेन' में हेमचंद्र से निम्न रूपों को उद्धृत किया है :- मरहि = *मरसि = म्रियसे; रुअहि = वैदिक, रुवसि = रोदिषि, लहहि = लभसे, विसूरहि = खिद्यसे, णीसरहि = निःसरसि' (हेम० ८.४.३६८, ३८३, १.४२२, २.१३१.४) । डा० टगारे ने बताया है कि पूर्वी अपभ्रंश में केवल सि वाले रूप ही मिलते हैं, जब कि दक्षिणी अपभ्रंश (स्वयंभू तथा पुष्पदंत की भाषा) में हि वाले रूप अधिक हैं; यहाँ 'सि तथा हि रूपों में २:२५ का अनुपात है, किंतु बाद में संस्कृत प्रभाव के कारण पुरानी मराठी में 'सि' चिह्न वाले रूप प्रमुख हो गये हैं । इन हि वाले रूपों का विकास प्रो० ज्यूल ब्लाख ने आज्ञा म० पु० ए० व० के '*धि' से जोड़ा है। किंतु आगे जाकर जहाँ साहित्यिक भाषा में सि, हि वाले रूप बचे खुचे रह गये हैं, कथ्य भाषा में ये लुप्त हो गये हैं। उक्तिव्यक्ति में सि (करसि) वाले रूप मिलते हैं, (दे० भूमिका पृ० ५७) तथा इनका अस्तित्व पुरानी अवधी में भी है। पुरानी राजस्थानी में इसके रूप °अइ वाले ही मिलते हैं तथा आधुनिक राजस्थानी में भी इसी का विकास रूप मिलता है। प्रा० पैं० में म० पु० ए० व० के वर्तमानकालिक रूप निम्न
घल्लसि (१.७), कीलसि (१.७). जाणहि (१.१३२ < जानासि). खाहि (२.१२० < खादसि).
चाहसि (१.१६९). (४) मध्यम पुरुष ब० व०
प्राकृत में आकर यहाँ ह तिङ् चिह्न पाया जाता है, जो प्रा० भा० आ० °थ (पठथ, भवथ) से विकसित हुआ है। अप० में इसमें अहँ, अह, अहु तिङ् चिह्न पाये जाते हैं, जिनका संबंध ब्लाख तथा ग्रे वर्तमानकालिक म० पु० ब० व० *थस् (उत्तम पुरुष ब० व० - मस् के सादृश्य पर) से जोड़ते हैं, केवल 'थ' से नहीं, जिससे उत्पन्न प्राकृत "ह का संकेत हम अभी कर चुके हैं। साथ ही हम देखते हैं कि अप० में वर्तमान तथा आज्ञा के म० पु० ब० व० के रूप परस्पर घुलमिल गये हैं, क्योंकि दोनों स्थानों में अहु, 'अह वाले रूप पाये जाते हैं । इसी अह, अहु से आज्ञा के हि० °ओ (करो), गुज० राज० °ओ (करो), ब्रज० °उ (करु) की उत्पत्ति मानी जा सकती है।
प्रा० पैं० में इसके उदाहरण नहीं मिलते । इनके आज्ञा ब० व० वाले रूप अनेक मिलते हैं, जिनका संकेत यथावसर किया जायगा। (५) उत्तम पु० ए० व०
प्राकृत में इसके अमि, 'आमि रूप मिलते हैं, जो प्रा० भा० आ० मि ( आमि) से संबद्ध हैं। (दे० पिशेल $ ४५४) अपभ्रंश में अउँ, अउ रूप मिलते हैं :- कड्डा (हेम० ४.३८५) < कर्षामि, कज्जउँ (हेम० ४.३८५), जाणउँ (३.३९१) < जानामि, जोइज्जउँ (४.३५६) < विलोक्ये, पावउँ (पिंगल १.१०४) < प्राप्नोमि (दे० पिशेल पृ० ३२२) । इस °अउँ (°अउ इसी का वैकल्पिक अननुनासिक रूप है) का विकास डा० चाटुा ने इस क्रम से माना है :
प्रा० भा० आ० °आमि > म० भा० आ० °आमि-अमि > परवर्ती म० भा० आ० या अपभ्रंश * अर्विं > *अउँइ > अउँ।
'करउँ' की व्युत्पत्ति का संकेत डा० चाटा ने यों किया है :
प्रा० भा० आ० करोमि, करामि >म० भा० आ० करामि - करमि > परवर्ती म० भा० आ० करवं > करउँइ १. Pischel $ 455. p. 322
२. Tagare $ 136, p. 288 3. L'Indo-Aryen p. 247
8. Evolution of Awadhi $ 391, p. 255 ५. Tagare $ 136, p. 289
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