Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् दिया जाता है। पश्चिमी हिंदी की यह खास विशेषता है, किंतु आधुनिक कोसली या अवधी आदि में यह विशेषता या तो नहीं पाई जाती या बहुत सीमित है। केलोग ने हिंदी विशेषण के विषय में तीन नियमों का आलेखन किया है :
(१) निर्विभक्तिक विशेषण अंग्रेजी के विशेषणों की तरह सभी तरह के विशेष्यों के साथ अपरिवर्तित रहते हैं। (२) सविभक्तिक अकारांत विशेषण कर्ता ए० व० विशेष्य के साथ अपरिवर्तित रहते हैं ।
(३) सविभक्तिक अकारांत विशेषण अन्य कारकों में विशेष्य के पूर्व 'आ' को 'ए' (तिर्यक् रूप) में परिवर्तित कर देते हैं।
(४) सविभक्तिक आकारांत विशेषण स्त्रीलिंग विशेष्य के साथ 'आ' को 'ई' में परिवर्तित कर देते हैं ।
प्रा० पैं० में म० भा० आ० के अनेक सविभक्तिक विशेषणों के अतिरिक्त निर्विभक्तिक तथा तिर्यक् वाले न० भा० आ० प्रवृत्ति के अनेक विशेषण रूप भी मिलते हैं । कुछ उदाहरण ये हैं :
(१) म० भा० आ० प्रवृत्ति के सविभक्तिक रूप :
बिंदुजुओ (१.२), पाड़िओ (१.२), अण्णो (१.२) हिण्णो, जिण्णो (१.३), वुड्डओ, णिव्वुत्तं (१.४), खुडिअं (१.११), कआवराहो (१.५५), पत्ते (अधि० ए० व० १.५५), वल्लहो (१.५५), जग्गंतो (१.७२), "विणासकरु (१.१०१), 'भअंकरु (१.१०१).
(२) स्त्रीलिंग रूपः
कामंती (१.३), सरिसा (१.१४), लोलंती (१.११९), चंदमुही, (१.१३२), खंजणलोअणि (१.१३२), पिअरि (१.१६६ < पीता), कलहारिणी (१.१६९), गुणवंति (१.१७१), तरुणी (१.१७४), सुंदरि (१.१७८).
(३) निविभक्तिकरूप :
वलंत (१.७) उल्हसंत (१.७), छोडि (१.९), दिढ (१.१०६), शुद्ध (१.१०८), विमल (१.१११), अतुल (१.१११) उदंड (१.१२६), सुत्थिर (१.१२८), रंक (१.१३०), चंचल (१.१३२), णव (१.१३५), सिअल (१.१३५) ।
(४) आकारांत रूप, निष्ठा प्रत्यय वाले विशेषण :पाआ (१.१३०), पावा (२.१०१) मेटावा (२.१०१) । (५) एकारांत तिर्यक् रूप, निष्ठा प्रत्यय वाले विशेषण :
चले (१.१४५, १.१९०), पले (१.१४५, १.१९०), भरे (१.१९०), करे (१.१९०) । सर्वनाम ८८. उत्तम पुरुष वाचक सर्वनाम :- इसके निम्न रूप प्रा० पैं० की पुरानी पश्चिमी हिंदी में मिलते हैं। ए० व०
ब० व० हउ (२.१२०), हऊ (२.१४७), मइ (१.१०६) हम (२.१९३) कर्म
मुज्झे (२.१४२) करण
(मइ) सम्प्रदान-संबंध मम (२.६), मे (२.४६), मह (मह्यं २.१५५), अम्मह (२.१३६), हम्मारो (२.४२), ___ महि (=मा) (२.१३८)
हमारी (२.१२०), अम्हाणं (२.१२) अधिकरण र
(१) 'हउ-हउँ' का विकास प्रा० भा० आ० अहं >म० भा० आ० प्राकृत अहकं (स्वार्थे-क वाला) रूप > परवर्ती म० भा० आ० हकं, हअं, हवें > अप० हउँ-हउ के क्रम से माना जाता है। १. Chatterjea : Ukktivyaktiprakaran. 865, pp. 45-46 २. Kellogg : Hindi Grammar $ 199, p. 134
कर्ता
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