Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् प्रातिपदिक रूपों तथा दूसरी ओर परसर्गों के प्रयोग ने न० भा० आ० भाषाओं को एक नया रूप दे दिया है। प्रा० पैं० की अवहट्ट में, यद्यपि संक्रांतिकालीन भाषा होने के कारण, प्राकृत तथा अपभ्रंश (म० भा० आ०) के सविभक्तिक रूप भी अवशिष्ट है, किंतु हम देख चुके हैं कि यहाँ कर्ता, कर्म, करण-अधिकरण, सम्प्रदान-संबंध प्रायः सभी में निर्विभक्तिक प्रातिपदिक रूपों का प्रयोग धड़ल्ले से पाया जाता है । प्रा० पैं० की भाषा की यही निजी प्रकृति कही जा सकती है। प्रातिपदिक रूपों के प्रयोग के कारण कुछ परसर्गों का प्रयोग भी आवश्यक हो गया है। प्रा० पैं० में निम्न परसर्ग पाये जाते हैं :
१. सउ-प्रा० पैं० में यह करण तथा अपादान दोनों के परसर्ग के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इन दोनों का एकएक उदाहरण पाया जाता है। 'एक सउ' (१.४६) (एकेन समं), संभुहि सउ (१.११२) (शंभुमारभ्य) । कुछ टीकाकारों ने इस दूसरे उदाहरण को भी करण कारक का ही माना है (शंभुना साध) । 'सउ' की व्युत्पत्ति सं० 'सम' से हुई है। 'सउ' का प्रयोग संदेशरासक में भी करण कारक में पाया जाता है :- गुरुविणएण सउ (७४ ब), विरहसउ (७९ अ), कंदप्पसउ (९९ ए) । इसका 'सिउँ' रूप प्रा० प० रा० में मिलता है। इसीसे संबद्ध पुरानी मैथिली का सञो, सँ है। मृत्युसत्रो कलकल करइतें अछ (मृत्यु के साथ कलकल (झगड़ा) कर रहा है, वर्णर० ४१ अ), इंदु माधव सजो खेलए (विद्यापति ३८ ए), मासु हडहि सञो खएलक (विद्या० १५ ब)। अपादान वाला प्रयोग अन्यत्र कहीं देखने में नहीं आया। 'सिउँ' रूप उक्तिव्यक्ति में भी मिलता है (दे०६६० (१०))। दूजणे सउं सब काहु तूट (३७/२३) ।
२. सह-प्रा० पैं० में इसका प्रयोग भी करण के परसर्ग के रूप में पाया जाता है-पाअ सह (२.१६१) । यह संस्कृत का 'सह' है, जिसका प्रयोग संस्कृत में तृतीया के साथ पाया जाता है।
३. कए-इस परसर्ग का प्रयोग केवल एक बार सम्प्रदान के अर्थ में हुआ है, पर इसके साथ संबंध कारक का सविभक्तिक रूप भी पाया जाता है-तुम्ह कए (१.६७) । यह संस्कृत के 'कृते' का विकसित रूप है। हिंदी के सम्प्रदानवाचक परसर्ग 'के लिए' का प्रथम अंश (के) इससे संबद्ध है :- कृते >कए >के ।
४. लागी-सम्प्रदान का परसर्गः, उदा० 'काहे लागी' (१.१४२) । इसकी व्युत्पत्ति सं० 'लग्न' से है; लग्नं > लग्गिअ > लग्गी > लागी ।
५. क, का, के - इन तीनों का संबंधकारक के परसर्ग के रूप में प्रयोग है :- गाइक घित्ता (२.९३), ताका पिअला (२.९७), मेच्छहके पुत्ते (१.९२), कव्वके (काव्यस्य १.१०८ क) देवक लिक्खिअ (२.१०१) । इन परसर्गों का संबंध सं० 'कृत' से जोड़ा जाता है। 'क' परसर्ग पूर्वी प्रवृत्ति का संकेत करता है। 'क' का संबंध कारक के परसर्ग के रूप में प्रयोग मैथिली में पाया जाता है। वर्णरत्नाकर में 'क' के ये प्रयोग देखे जाते हैं :-'मानुष-क मुहराव' (४७ अ), आदित्य-क किरण (४९ अ), गो-क संचार (३० ब) इत्यादि । (दे० वर्णरत्नाकर भूमिका ६ ३१) डा० सुनीति कुमार चाटुा ने 'क' की व्युत्पत्ति संस्कृत स्वार्थे 'क' प्रत्यय से मानी है। साथ ही यह भी हो सकता है कि द्रविड विशेषण प्रत्यय-'क्क' ने भी इसे प्रभावित किया हो । मैथिली के 'क' यही स्रोत जान पड़ता है। सं० 'कृत' से इस 'क' की व्युत्पत्ति मानने का डा० चाटुा ने खण्डन किया है। का-के रूप हिन्दी में भी पाये जाते हैं । 'के', 'का' का ही तिर्यक् रूप है । इन दोनों की व्युत्पत्ति 'कृत' से मानने में कोई आपत्ति नहीं जान पड़ती । प्रा० पैं० में एक स्थान पर 'क' परसर्ग का प्रयोग सम्प्रदान के अर्थ में भी पाया जाता है :- 'धम्मक अप्पिअ' (धर्माय अपितं' (१.१२८, २.१०१))। संभवतः इसका सम्बन्ध भी उपर्युक्त 'क' से ही है, क्योंकि डा० चाटुा के अनुसार 'कृत' या 'कृते' से इसकी व्युत्पत्ति नहीं मानी जा सकेगी।
६. मह-यह अधिकरण का परसर्ग है। प्रा० पैं० में इसका प्रयोग अन्य परसर्गों की अपेक्षा अधिक पाया जाता है-लोहंगिणिमह (१.८८), कोहाणलमह (१.१०६), सिरमह (१.१११) ।
१. Sandesarasaka : (Study) 873 7. Tessitori $ 71 3. Varnaratnakara (Intro) $ 36, Dr. Subhadra Jha : Vidyapati (Intro.) p. 153 8. Chatterjea : Origin and Development of Bengali Language vol. II p. 756
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