Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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पद-विचार
४६७ भमंति' माना है ।१ संम्भवतः यही पाठ ठीक है तथा 'इत' को पूर्वी अप० का अधिकरण ए० व० का प्रत्यय मानना ठीक नहीं ।
(६) डा० शहीदुल्ला ने पूर्वी अप० में दो प्रातिपदिक रूपों का प्रयोग भी अधिकरण ए० व० के अर्थ में संकेतित किया है, पास (=पार्श्वे) (कण्हपा दोहा २३), तड (-तटे) (सरहपा दोहा २) । ये रूप न० भा० आ० में अधिकरणार्थे प्रयुक्त शून्य रूपों के बीज का संकेत कर सकते हैं ।
प्राकृतपैंगलम् की भाषा में निम्न प्रत्ययों का प्रयोग अधिकरण एक वचन में पाया जाता है। (१) -ए वाले रूप; (२) -म्मि वाले रूप । (३) -इ वाले रूप, (४) -हिँ, -हि वाले रूप (५) -ह वाले रूप, (६) शून्य रूप, (७) परसर्ग वाले प्रयोग ।
(१) -ए रूप, यह प्राकृत तथा प्रा० भा० आ० का अधिकरण ए० व० का चिह्न है । ये रूप प्राकृतीकृत (प्राकृताइज्ड) रूपों में या प्राकृत पद्यों में मिलते हैं।
पुव्वद्धे (१.५२) < पूर्वार्धे, उत्तद्धे (१.५२) < उत्तरार्धे, बीए (१.५४) < द्वितीये, तीए (१.६२) < तृतीये, चउत्थए (१.६२) चतुर्थे, दल < दले, भुअणे (१.७२) < भुवने, समुद्दे (१.७४) < समुद्रे (सेतुबंध का उदाहरण), सीसे (१.८२) < शीर्षे, पंचमे (१.१३१), मणे (१.१७९) < मनसि, जुज्झे (२.४) < युद्धे, साणए (१.१८८)< शाणके, ण < नगरदाहे, कंठए (२.१२४) < कंठके, कडक्खे (२.१२६) < कटाक्षे ।
(२)-म्मि वाले रूप; ये शुद्ध प्राकृत रूप है तथा प्रा० पैं० में एक आद्य उदाहरण मिलते हैं। पुव्वद्धम्मि (१.५७) < पूर्वार्धे, परद्धम्मि (१.५७) < परार्धे ।
(३) इ वाले रूप - ये °ए वाले प्राकृत रूपों के दुर्बल रूप हैं। ये भी बहुत कम ही मिलते हैं । उदाहरण
गंथि गंथि (१.१०७) < ग्रन्थे ग्रन्थे, ठावि (१.१९२) < स्थाने । (४) हि-हिँ वाले रूप - इनके उदाहरण अधिक हैं, किंतु शून्य रूपों की अपेक्षा कम हैं। उदाहरण ये हैं।
हृदहिँ (१.७) < हृदे, पढमहिँ (१.८४) < प्रथमे, सीसहिँ (१.९८) < शीर्षे, आइहिँ (१.१०३, १८७) < आदौ, चउत्थहिँ (१.१३१) < चतुर्थे, पढमहि (१.१४८)< प्रथमे, दलहि (१.१७३) <दले, ठामहि (१.१९१) < स्थाने, “वंसहि (२.१०१) < वंशे, सिरहि (२.८४) < शिरसि, णइहि (१.९) < नद्यां ।।
(५) ह-यह मूलत: संबंध ए० व० का चिह्न है, जिसका प्रयोग कुछ स्थानों पर अधिकरण ए० व० में भी पाया जाता है।
पअह (१.१४३) < पदे, अंतह (२.१४३) < अंते, काअह (२.१९५) < काये ।
(६) शून्य रूप :- प्राकृतपैंगलम् की भाषा में अधिकरण ए० व० में शून्य रूपों का प्रयोग अत्यधिक महत्त्व रखता है। कुछ उदाहरण ये हैं :
चरण (१.६) < चरणे, पाअ (१.८४) < पादे, विसम (१.८५) < विषमे, पढम पअ (१.९४) < प्रथमे पादे, कण्ण (१.९६) < कर्णे, कुम्म (१.९६) < कूर्मे, महि (१.९६) < मह्यां, चक्कवइ (१.९६) < चक्रपतौ, रण (१.१०६, २.१३०) <रणे, णहपह (१.१०६)< नभ:पथे, णअण (१.१११)< नयने, सिर (१.१११) < शिरसि, दिअमग (१.१४६) < दिङ्मार्गे, णह (१.१४७) < नभसि, सीस (२.३०) < शीर्षे, सग्ग (२.९५) < स्वर्गे, गअण (१.१६६) < गगने, दिस विदिस (१.१८९) < दिशि विदिशि, दिगंत (२.२२) < दिगंते, धरणी (१.१८०)< धरण्यां, थणग्ग (२.१८५)< स्तनाग्रे ।
(७) परसर्ग वाले रूपों के लिए दे० परसर्ग ६ ९९ । कर्ता-कर्म-संबोधन बहुवचन
६८३. प्रा० भा० आ० में इन तीनों में अकारांत पु० शब्दों के ए० व० तथा नपुंसक शब्दों के रूपों को छोड़कर प्रायः एक से रूप पाये जाते हैं । वहाँ इनके प्रत्यय ये हैं :- (१) अस् (नपुंसक शब्दों के ब० व० रूपों को तथा
१. राहुल सांकृत्यायन : हिन्दी काव्यधारा पृ० १४६ Jain Education International
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