Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् (२) फुलिअ महु भमर बहु रअणिपहु, किरण लहु अवअरु वसंत ।
मलअगिरि कुहर धरि पवण वह, सहब कह सुण सहि णिअल णहि कंत ॥ (१.१६३) (३) सेर एक जइ पावउँ घित्ता, मंडा बीस पकावउँ णित्ता ।
टंकु एक्क जउ से घव पाआ, जो हउ रंक सोइ हउ राआ ॥ (१.१३०) (४) सुरअरु सुरही परसमणि, णहि वीरेस समाण ।
ओ वक्कल ओ कठिणतणु, ओ पसु ओ पासाण ॥ (१.७९) इन पद्यों में प्रथम पद्य की भाषा पुरानी हिंदी की भट्ट भाषा-शैली का परिचय दे सकती है, जहाँ 'णच्चंत', 'हक्का', 'टुट्ट', 'फुट्टे', 'मज्झे' जैसे व्यंजन-द्वित्व वाले रूपों की छौंक पाई जाती है। द्वितीय पद्य की शैली की तुलना विद्यापति के पदों की भाषा-शैली से मजे से की जा सकती है। तृतीय पद्य के 'पावउँ, पकावउँ, हउ' जैसे रूप 'पाऊँ, पकाऊँ, हौं' जैसे खड़ी बोली, ब्रज रूपों के प्राग्भाव हैं तथा 'पाआ' तो वस्तुः 'पाया' (खड़ी बोली) का ही य-श्रुतिरहित रूप है। इतना ही नहीं, इसकी वाक्यरचनात्मक प्रक्रिया स्पष्टतः हिंदी की है। चतुर्थ पद्य तो साफ तौर पर ब्रजभाषा का है ही। इसकी तद्भव मूर्धन्य ध्वनियों का हटा कर निम्न रूप में पढिये :
सुरअरु सुरही परसमणि, नहि वीरेस समान ।
ओ वाकल ओ कठिन तनु, ओ पसु और पाखान ।। कहना न होगा, 'वक्कल' (सं० वल्कल) का 'बाकल' (रा० बाकलो) रूप 'भूसा' के अर्थ में पूरबी राजस्थानी और ब्रज में आज भी प्रचलित है।
कहने का तात्पर्य यह है, यद्यपि प्रा० पैं० के पद्यों में एक-सी भाषा-शैली सर्वत्र नहीं पाई जाती, तथापि इसके पद्य पुरानी हिंदी की विभिन्न भाषा-शैलियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो हिंदी साहित्य के आदि काल में भट्ट कवियों के द्वारा प्रयुक्त होती देखी जाती है, तथा इसमें बाद के मध्ययुगीन काव्य की भाषा-शैली के छुटपुट बीज भी देखे जा सकते हैं। इस प्रकार प्रा० पैं० की भाषा पुरानी ब्रजभाषा की विविध साहित्यिक भाषा-शैलियों का परिचय देने में पूर्णत: समर्थ है। प्राकृतपैंगलम् में नव्य भा० आ० के लक्षण
३५. नव्य भारतीय आर्य भाषा वर्ग की सब से प्रमुख विशेषता प्राकृत-अपभ्रंश ( म० भा०आ०) के व्यञ्जन द्वित्व का सरलीकरण है। उच्चारण-सौकर्य के कारण श्रुतिकटु एवं दुरुच्चारित द्वित्व व्यञ्जनों को सरलीकृत कर उसके पूर्व के स्वर को, अक्षर-भार (Syllabic Weight) की रक्षा के लिये, प्रायः दीर्घ कर देना, पंजाबी जैसी एक आध भाषा को छोड़कर सभी न० भा० आ० की पहचान है। पंजाबी ने अवश्य इन द्वित्व व्यञ्जनों को सुरक्षित रक्खा है । वहाँ 'कम्म' (हि० काम), कल्ल (हि० कल), सच्च (हि० सच, साँच), हत्थ (हि० हाथ), नत्थ (हि० नथ), जैसे शब्द पाये जाते है। यह विशेषता पंजाबी प्रभाव के कारण ही खड़ी बोली के कथ्य रूप में भी पाई जाती है :-बाप > बप्पू, बासन > बस्सन्ह, गाडी > गड्डी, भूखा > भुक्खा, बेटा > बेट्टा, देखा दक्खा, भेजा > भेज्जा, रोटी > रोट्टी। खड़ी बोली के कथ्य रूप में कई स्थानों पर यह उच्चारण ऐतिहासिक कारणों से न होकर केवल निष्कारण (Spontaneous doubling of consonants) भी पाया जाता है। ब्रजभाषा, राजस्थानी, गुजराती में ही नहीं, पूरबी वर्ग की भाषाओं में भी द्वित्व व्यंजन का सरलीकरण नियत रूप से पाया जाता है। यद्यपि प्रा० पैं० की पुरातनप्रियता ने द्वित्व व्यंजनों को न केवल सुरक्षित ही रक्खा है, बल्की कई स्थानों पर छन्दःसुविधा के लिये द्वित्वयोजना भी की है; तथापि न० भा० आ० की सरलीकरण वाली प्रवृत्ति भी अनेक स्थानों पर परिलक्षित होती है :१. डा० चाटुा : भारतीय आर्यभाषा और हिंदी पृ० १२४ । २. डा० तिवारी : हिंदी भाषा का उद्गम और विकास पृ० २३१ । 3. Tessitori : Notes on O. W. R. $ 40.
माँकुण < मक्कुण, लूखउ < लुक्खउ (रूक्षक:), बाट < वट्टा (वर्मा), दीठउ < दिट्ठउ, काढइ < कड्डइ (कर्षति),
पूतली < पुत्तली, सीधउ < सिद्धउ (सिद्धक:) आदि । ४. Dr. Chatterjea : Origin and Development of Bengali Language p. 318.
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