Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 471
________________ ४४६ प्राकृतपैंगलम् इससे स्पष्ट है कि 'अभिनिधान' का तात्पर्य व्यञ्जन ध्वनि, विशेषतः स्पर्श व्यंजन के स्फोट-निरोध से हैं, जब कि बाद में कोई अन्य स्पर्श ध्वनि पाई जाती है; इसी को फ्रेंच भाषाशास्त्रीय परिभाषा में 'आँल्पोज़िओँ' (implosion) कहा जाता है। जब हम किसी व्यंजन का उच्चारण करते हैं, तो दो प्रक्रियायें पाई जाती है :-अभिनिधान तथा स्फोट । पहले क्षण, जिह्वा अंदर से बाहर आते वायु को रोक कर तालु के किसी भाग या मुख-विवर के किसी भाग के साथ चिपकी रहती है। दूसरे क्षण वह उस वायु को मुक्त करने के लिए अपने स्थान पर आ जाती है। पहली प्रक्रिया को 'अभिनिधान' (implosion) तथा दूसरी को स्फोट (explosion) कहा जाता है। पहली प्रक्रिया मं ध्वनि श्राव्य नहीं हो पाती, उसका श्रवण तभी हो पाता है, जब दूसरे क्षण स्फोट व्यक्त किया जाय । इन दोनों प्रक्रियाओं के मध्य प्रो० वाँद्रे ने वायु को रोकने की तीसरी प्रक्रिया को भी माना है :-(१) जीभ का तत् स्थान से सटना, (२) कम या ज्यादा समय तक वायु का अवधारण, (३) वायु का मोक्ष या स्फोट । इन तीनों स्थितियों का अनुभव असंयुक्त व्यंजन ध्वनि में न होकर संयुक्त व्यञ्जन-द्वित्व ध्वनियों में स्पष्ट होता है। प्रो० वाँद्रे व्यञ्जन-द्वित्वों को दो व्यंञ्जन ध्वनियाँ न मानकर दीर्घ व्यञ्जनोच्चारण ही मानते हैं। आगे चलकर अन्य स्थान पर ध्वनि-परिवर्तन के संबंध में प्रो० वाँद्रे ने बताया है कि संयुक्त स्पर्श ध्वनियों में प्रथम ध्वनि की तीनों प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती । उदाहरण के लिये 'अक्त' (akta) में 'क्' केवल अभिनिहित ध्वनि है तथा स्फोट ध्वनि त् की अपेक्षा इसका अवधारण कम होता है। फलत: इस संयुक्त व्यञ्जन ध्वनि का विकास दो तरह से हो सकता है, या तो उच्चारणकर्ता उच्चारण-सौकर्य के लिये 'क' का संनिकर्ष (articulation) करना भुला दे और 'अभिनिधान' की स्थिति के ठीक बाद जीभ को 'त्' की स्थिति में लाकर तब स्फोट या वायु का मोक्ष करे, निधान' की स्थिति के ठीक बाद जीभ को 'त्' की स्थिति में लाकर तब स्फोट या वायु का मोक्ष करे, अथवा वह 'क्' का पूर्ण स्फोट कर तब 'त्' का उच्चारण करे । प्रथम स्थिति में भाषावैज्ञानिकों की 'सावर्ण्य' या समीकरण' वाली दशा होगी, द्वितीय स्थिति में 'स्वरभक्ति' वाली । उदाहरणार्थ, सं० 'भक्त' की 'क्त' संयुक्त ध्वनि का विकास प्रथम ध्वनिवैज्ञानिक प्रक्रिया के अनुसार 'भत्त' होगा; द्वितीय प्रक्रिया के अनुसार '>भकत' (भगत)। हिंदी में 'भक्त' के ये दोनों विकास पाये जाते हैं, पहला 'चावल' अर्थ में-भक्त >* भत्त > भात; दूसरा 'उपासक' अर्थ में-भक्त >*भकत > भगत । (अ) संयुक्त व्यञ्जनों की सावर्ण्य-प्रक्रिया :-म० भा० आ० में संयुक्त व्यञ्जनों की प्रक्रिया प्रायः निम्न प्रकार की पाई जाती है :-स्पर्श व्यञ्जन+अंत:स्थ स्पर्श व्यंजन+सवर्ण स्पर्श व्यंजन, सोष्म व्यंजन स्पर्श व्यंजन सवर्ण स्पर्श 8. This refers to the non-release of a consonant, more particularly a stop, when followed by a stop, and parallels the French term 'implosion.' -W. S. Allen : Phonetics in Ancient India. $ 3.120, p. 71. २. Thus, in every occlusive consonant, there are three distinct stages :a closure or implosion, a retention of longer or shorter duration, and a release or explosion. In pronouncing a simple consonant, for example, the explosion follows immediately upon the implosion, and the retention is reduced to a scarcely appreciable fraction of time. On the other hand, the three periods are clearly marked in what we call the double consonants, which are merely long consonants pronounced with greater force than the short ones. -J. Vendryes : Language. p. 23 (Forth Imp. 1952) ३. Acluster like 'akta' has an implosive 'k' which is less restraint than the explosive 't' which follows it. Two opposing tendencies may operate, the result of which will be modification of the cluster. Out of Sheer laziness, the speaker may omit to articulate the 'k' and immediately after the implosion bring the tip of his tongue to the position for 't'; the final result will be 'atta' with a long 't'..... Or, again, in his desire to do justice to 'k' the speaker may follow the implosive 'k' with an explosion articulated lightly at the same point before passing to the 't' explosion. -J. Vendryes : Language p. 59 (साथ ही दे०) Heffner : General Phonetics $ 7.52. p. 176. (1952). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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