Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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ध्वनि-विचार
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ध्वनि वाले उदाहरणों में हस्तलेखों में से अधिकांश अधिकतर स्थलों पर अनुस्वार + व्यञ्जन का ही प्रयोग करना ठीक समझते हैं तथा मैंने भी इसी पद्धति को संपादित पाठ में अपनाया है ।।
प्रा० पैं. की भाषा में 'ह' वाले उपर्युक्त एकमात्र उदाहरण को छोड़कर कहीं भी पदादि संयुक्त व्यंजन ध्वनि नहीं पाई जाती । कहना न होगा, न० भा० आ० में भी तद्भव शब्दों में प्रायः पदादि संयुक्त व्यंजन ध्वनि नहीं पाई जाती। प्रा० पैं० की भाषा में न० भा० आ० की प्रक्रिया ही पाई जाती है, जहाँ स्पर्श व्यंजन + अंत:स्थ; अथवा सोष्मध्वनि स्पर्श व्यंजन का विकास केवल स्पर्श व्यंजन ध्वनि के रूप में पाया जाता है; अंत:स्थ तथा सोष्मध्वनि का लोप कर दिया जाता है। कतिपय उदाहरणे ये हैं :
गहिलत्तणं (१.३ < ग्रहलत्वं), बंजण (१.५ < व्यंजन), ठाणे (१.१४ < स्थाने), बंभ (१.१५ < ब्रह्मा, ब्रह्मन्), धुअ (१.१८ < ध्रुव), बीए (१.२७ < द्वि), मेच्छ (१.७१ < म्लेच्छ), कोहे (१.९२ < क्रोधेन), गिव (१.९८ < ग्रीवा), बासट्ठि (१.९९ < द्वाषष्टि), थप्पिअ (१.१२८ < स्थापिता), णेहलुकाआ (१.१८० < स्नेहलकायः) ।
विविध स्पर्श ध्वनियों के विजातीय संयुक्त व्यंजन वाले रूपों का म० भा० आ० में सर्वथा अभाव है। संस्कृत में पदमध्यग स्थिति में हमें तीन, चार, पाँच संयुक्त ध्वनियों के भी उदाहरण मिल जाते हैं, जिसमें तीन व्यंजन वाले शब्द अनेक हैं। इनके उदाहरण उज्ज्वल, अर्घ्य, तार्क्ष्य, कात्य॑ दिये जा सकते हैं। म० भा० आ० में सिर्फ दो व्यञ्जनों वाली संयुक्त ध्वनियाँ ही पाई जाती हैं, इससे अधिक व्यंजनों के संयुक्त उच्चारण का यहाँ सर्वथा अभाव हो गया है तथा यह प्रवृत्ति न० भा० आ० में भी वहीं से आई है। इसके साथ ही यहाँ विजातीय व्यंजन ध्वनियों के संयुक्त उच्चारण का सर्वथा अभाव है; अपवाद केवल 'न्ह, म्ह, ग्रह, ल्ह' ही है, जिन्हें अनेक भाषाशास्त्री संयुक्त ध्वनियाँ न मानकर शुद्ध महाप्राण ध्वनियाँ (न, म, ण, ल) के महाप्राण रूप मानना ज्यादा ठीक समझते हैं। व्यंजन ध्वनियों का यह विकास एक महत्त्वपूर्ण ध्वनिवैज्ञानिक तथ्य है तथा इस तरह का विकास अनेकों भाषाओं में होता देखा जाता है। रोमांस वर्ग की यूरोपीय भाषाओं में यह प्रवृत्ति देखी जाती है तथा लातिनी भाषा की विजातीय संयुक्त व्यञ्जन ध्वनियों को इतालवी भाषा में सजातीय द्वित्व बना दिया जाता है, यथा लातिनी actus, strictus, septem के इतालवी भाषा में atto, stretto, sette रूप पाये जाते हैं। इस परिवर्तन का मूल कारण उच्चारण-सौकर्य तथा ध्वनिशास्त्रीय तथ्य है । . डा० चाटुा ने बताया है कि छांदस संस्कृत की संयुक्त स्पर्श व्यञ्जन ध्वनियों में प्रथम स्पर्श ध्वनि का पूर्ण स्फोट (explosion) पाया जाता था। इस तरह 'भक्त, लिप्त, दुग्ध, भग्न' में स्पष्टतः दोनों का स्फोट होता था। इस काल तक उच्चारणकर्ता के मानस में इन शब्दों के प्रकृति-प्रत्यय-विभाग का स्पष्ट ज्ञान था, किन्तु बाद में चलकर धातुविषयक बोध या धात्वाश्रयी धारणा का लोप हो गया । फलतः दोनों व्यंजनों का स्फोट न होकर केवल अन्तिम व्यञ्जन का स्फोट होने लगा, प्रथम स्पर्श व्यंजन का केवल 'अभिनिधान' या संधारण' (implosion) किया जाने लगा । “इस प्रक्रिया के फल स्वरूप स्वरों के ह्रस्व-दीर्घत्व, स्वराघात (stress accent) सभी में परिवर्तन हो गया ।" अभिनिधान-युक्त उच्चारण परवर्ती वैदिक-काल की वैभाषिक प्रवृत्ति में ही चला पड़ा था, इसके संकेत प्रातिशाख्यों में मिलते हैं। ऋक्प्रातिशाख्य तथा अथर्वप्रातिशाख्य इसका संकेत करते हैं :
"अभिनिधानं कृतसंहितानां स्पर्शान्त:स्थानां अपवाद्य रेफ संधारणं संवरणं श्रुतेश्च स्पर्शोदयानां । अपि चावसाने ।" (ऋक्प्राति० ६.१७-१८) (रेफ के अतिरिक्त स्पर्शों तथा अंत:स्थों के स्पर्श ध्वनि के द्वारा संहित होने पर, अभिनिधान पाया जाता है, अर्थात् श्रुति (ध्वनि) का संधारण (implosion) किया जाता है। यह पदांत में भी होता है ।)
"व्यञ्जनविधारणमभिनिधानः पीडितः सन्नतरो हीनश्वासनादः । स्पर्शस्य स्पर्शोऽभिनिधानः । आस्थापितं च ।" (अथर्वप्राति० १.४३-४४; १.४८).
(अभिनिधान का अर्थ व्यञ्जन के उच्चारण को रोकना, धारण करना, अर्थात् उसे पीडित तथा श्वास एवं नाद से हीन बना देना है। यह प्रक्रिया स्पर्श ध्वनि के बाद स्पर्श ध्वनि आने पर पाई जाती है। इसे 'आस्थापित' (ठहराया हुआ, रोका हुआ) भी कहते हैं ।) १. दे०-अनुशीलन $ ४८ २. डा० चाटुा : भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी पृ० ८६-८९, तथा डा० प्र० बे० पंडितः प्राकृत भाषा पृ० ४८-४९
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