Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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कर्म कारक ए० व०
$ ७९. प्राचीन भारतीय आर्य भाषा में कर्म कारक ए० व० के निम्न चिह्न है :- (१) — अम्, - म्, प्रायः सभी तरह के शब्दों के साथ, (२) शुद्ध प्रातिपदिक रूप, अकारांत नपुंसक लिंगो को छोड़कर अन्य सभी नपुंसक लिंग शब्दों के साथ प्रथम म० भा० आ० (प्राकृत) में दूसरी कोटि के रूप नहीं पाये जाते केवल अम् रूप ही मिलते हैं, आकारांत, इ उकारांत स्त्रीलिंग शब्दों के रूपों में पूर्ववर्ती स्वर को हस्व कर दिया जाता है :- मालं मालां गई नदी बहुं < वधूं । परवर्ती म० भा० आ० या अपभ्रंश में आकर कर्ता-कर्म-संबोधन ए० व० के रूप एक दूसरे में घुलमिल गये हैं । यहाँ कर्म ए० व० के रूप (प्राकृत -अम् वाले रूपों को छोड़कर) कर्ता कारक ए० व० के रूपों की तरह -उ सुप् विभक्ति का प्रयोग करते देखे जाते हैं। इस तरह अपभ्रंश में कर्म ए० व० में दो तरह के रूप पाये जाते हैं :(१) - उ वाले रूप, (२) शून्य रूप (जीरो) या प्रातिपदिक रूप । इनके अतिरिक्त प्राकृत सर्वस्व में - इ वाले कर्ताकर्म ए० व० के अस्तित्व का संकेत भी अपभ्रंश में मिलता है। मार्कण्डेय ने अपने प्राकृतसर्वस्व (१७.१२) में इस विभक्ति चिह्न (इ) का संकेत किया है। अपभ्रंश की उपलब्ध कृतियों में इ वाले रूप कहीं नहीं मिलते, यहाँ तक कि पूर्वी अपभ्रंश में, कण्ह और सरह के दोहाकोष में जहाँ इस सुप् विभक्ति का होना अपेक्षित है; वहाँ भी यह नहीं पाई जाती। इसका मुख्य कारण यह है कि अपभ्रंश काल में पश्चिमी (शौरसेनी अपभ्रंश ही परिनिष्ठित साहित्यिक अपभ्रंश रही है, और पूरब का अपभ्रंश साहित्य भी उससे प्रभावित है। यहाँ तक कि पूरी हिन्दी की कथ्य प्रकृति को विकसित करने में भी उसका हाथ रहा है। इस सम्बन्ध में इस -इ पर थोड़ा विचार कर लिया जाय। मूलतः यह -इ कर्ताकारक ए० व० का चिह्न है, ठीक वैसे ही जैसे उ भी मूलतः कर्ताकारक ए० व० का चिह्न है प्रा० भा० आ० के कर्ता कारक ए० व० काम० भा० आ० में दो तरह का विकास पाया जाता है, एक ओ, दूसरा -ए। इन्हीं से अपभ्रंश में क्रमश: - उ तथा -इ को विकसित किया गया है, पर इ वाले रूप चाहे कथ्य भाषा में रहे हों, साहित्यिक भाषा में दृष्टिगोचर नहीं होते ।
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प्रा० भा० आ० पुत्रः {
प्राकृतपैंगलम्
म० भा० आ० पुत्ते (महा०, म० भा० आ० पुत्ते (मा०,
इस इ वाले रूप का संकेत एक स्थान पर डा० चाटुर्ज्या ने भी किया है। उक्तिव्यक्तिप्रकरण की भाषाशास्त्रीय 'स्टडी' में पुरानी कोसली (उक्तिव्यक्ति की भाषा) के कर्ता ए० व० का विचार करते समय, डा० चाटुर्ज्या ने बताया है कि यदि पुरानी कोसली सचमुच अर्धमागधी से विकसित हुई है, तो यहाँ हमें वाले रूप मिलने चाहियें (पुत्र पुत्ते पुत्ति पूति), किंतु ये - इ वाले रूप यहाँ नहीं मिलते । ये इ वाले रूप भोजपुरी तथा पश्चिमी बँगला में भी नहीं पाये जाते । पूरबी बँगला, असमिया तथा उड़िया में अवश्य इनका अस्तित्व है, और पुरानी बँगला में भी यह सुप् प्रत्यय मिलता है ।
प्रा० पैं० की भाषा में कर्म ए० व० में ये चिह्न पाये जाते हैं :
(१) म् रूप ये रूप परिनिष्ठित प्राकृत रूप है, जिनका प्रयोग प्राकृत पद्यांशों में मिलता है। वैसे कुछ अवहट्ठ पद्यांशो में भी ये रूप मिलते हैं, किंतु वहाँ या तो इन्हें प्राकृतीकृत (प्राकृताइज्ड) रूप मानना होगा, या छन्दोनिर्वाहार्थ; अथवा संस्कृत की गमक लाने के लिए पदांत अनुस्वार का प्रयोग माना जा सकता है। इसके उदाहरण ये हैं :पारं, गहिलत्तणं (१.३) < ग्रहिलत्वं, संभुं (१.३) शंभु, रूअं (१.५३) < रूपं, माणं (१.६७) धनुः णामं (१.६९) नाम, पाअं (१.७१) ८ पादं सरीरं (१.७१) शरीरं गिरिं (१.७४) सौख्यं मज्जं (२.१०७) मद्यं मंसं (२.१०७) मांस, सिरिमहुमहणं (२.१०९)
श्रीमधुमथनं,
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शौर० ) > पुत्तु (अप० ) > पुत्त (अव० ) > पूत (हि० ) । अर्धमा० ) > *पुत्ति (मार्कण्डेय का 'इ' वाला रूप) ।
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पारं (१.१) < मानं, घणुं (१.६७) < गिरिं सावखं ( २.३४) णाहं (२.१७५)
नार्थ
(२) उ रूप ये रूप अपभ्रंश के अवशेष हैं। प्रा० पै० की भाषा से दिमात्र उदाहरण ये हैं :हअगअबलु (१.८७) - हयगजबलं, घणु (१.१२८) < धनं, अप्पर (१.१३५) - आत्मानं, राअसेणु (१.१४२ )
2. Pischel § 374
३. डा० तिवारी : भोजपुरी भाषा और साहित्य ६ ३२२ ।
२. Chatterjea Uktivyaktiprakarana (Study) 863
%. Chatterjea: ODBL § 497
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