Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् बना दिया गया है । छन्द की दृष्टि से इन्हें 'आ' रूप माना जा सकता है, किंतु भाषाशास्त्रीय दृष्टि से इन्हें 'अ' रूप ही मानना होगा, क्योंकि कथ्य भाषा में ये कभी आकारांत न रहे होंगे । जहाँ तक शब्दों के आकारांत सबल रूपों का प्रश्न है, जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत के स्वार्थे (प्लेओनिस्टिक) 'क' प्रत्यय वाले रूपों से हुई है, उनके साथ हम इस नियम को लागू नही कर रहे हैं । प्रा० पैं० के शून्य विभक्ति वाले रूपों को हम तीन कोटियों में बाँट रहे हैं : (क) अकारांत प्रातिपदिक रूप, (ख) अकारांत प्रातिपदिक के दीर्धीकृत रूप (आ-रूप), (ग) अन्य प्रातिपदिक रूप।
(क) प्रा० पैं० की भाषा में अकारान्त प्रातिपदिक के कर्ता ए० व० रूपों के निम्न उदाहरण हैं :
फल (१.६) < फलं, कंत (१.६) < कांतः, भुअंगम (१.६) < भुजंगमः, वक्कल (१.७९) < वक्कलः, पासाण (१.७९) < पाषाणः जस (१.८७) < यशः, तिहुअण (१.८७)< त्रिभुवनं, तरणिरह (१.९२) < तरणिरथः, पिट्ठ (१.९२)(स्त्रीलिंग) < पृष्ठं (लिंगव्यत्यय), हम्मीर वीर (१.९२) < हम्मीर: वीरः, कुम्म (१.९६) < कूर्मः, चक्क (१.९६) < चक्र, पिंधण (१.९८) < पिधानं, अणल (१.९८) अनलः, रणदक्ख (१.१०१) < रणदक्षः, जज्जल (१.१०६) < जज्जलः, पवण (१.१३५) < पवनः, मणोभवसर (१.१३५) < मनोभवशरः, सरीर (१.१४७) < शरीरं, अमिअ (१.१६०)< अमृतं, वसंत (१.१६४) < वसंतः, जल (जलं), घण (घनः) (१.१६६), सेवक (१.१६९) < सेवकः, लुद्ध (१.१६९) < लुब्धः, जीवण (२.१३०) < जीवनं, णिद्दअ (२.१३४) < निर्दयः, काम (२.१३४) कामः, मेह (२.१३६) < मेघः, पाउस (२.१३६) < प्रावृष् (लिंगव्यत्यय), वम्मह (२.१३६) < मन्मथः, णाअराअ (२.१५९) < नागराजः, पिअ (२.१९१) < पिकः, दिण (२.१९१) > दिनं, हिअअ (२.१९३) < हृदयं, पिअ (२.१९३) < प्रियः, समअ (२.२०५) < समयः, णराअण (२.२०७) < नारायणः ।
(ख) प्रा० पैं० की भाषा से कर्ता० ए०व० में अकारांत प्रातिपदिक के दीर्घाकृत रूप के उदाहरण निम्न हैं :
चंदा (१.७७) < चन्द्रः, हारा (१.७७) < हारः, तिलोअणा (१.७७) < त्रिलोचनः, केलासा (१.७७) < कैलासः, तिहुअणा (१.६९) < त्रिभुवनं (तुक के लिये), भवाणीकंता (१.९८) < भवानीकांतः (छंदोनिर्वाहार्थ तथा तुक के लिये), मोक्खा (१.११९) < मोक्षः (प्राप्यते), देसा (१.१२८) < देशः, मालवराअकुला (१.१८५) < मालवराजकुलं (कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत का कर्म रूप), दीहरा (१.१९३) < दीर्घः, धणेसा (१.२१०) < धनेशः, गिरीसा (१.२१०) < गिरीशः, सहावा (१.२१०) < स्वभावः, कंता (२.५८) < कांतः, संता (२.४८) < संत (अव०) < सन् (प्रा० भा० आ०), सग्गा (२.५२) < स्वर्गः, जणद्दणा (२.७५) < जनार्दनः, पुणवंता (२.९३) < पुण्यवान्, पिअला (२.९७) < *प्रियल: (प्रियः), कलत्त (२.११७) < कलत्रं, वीसा (२.१२३) < विषं, चम्मा (२.१२३) < चर्म, दक्खा (२.१८१) < दक्षः, णाएसा (२.११२) < नागेशः ।
(ग) अन्य प्रकार के शब्दों के उदाहरण ये हैं :
आ (स्त्री० तथा पुं०) -गंगा (१.११९), माला (२.१२१), चंडिआ (२.६९) < चंडिका; सबल पु० - जड्डा (१.१९५), मत्था (२.१७५) ।
इ (पुं० तथा स्त्री०) - महि (१.९६) < मही, गोरि (१.९८) < गौरी, अहि (१.१६०) < अहिः, ससि (१.१६०) शशी (शशिन्), विजुरि (१.१६६) घरिणि (१.१७१) < गृहिणी, गुज्जरि (१.१७८) < गुर्जरी, धूलि (२.२०३) < धूलिः ।
उ (पु० स्त्री०) -पसु (१.७९) < पशुः, वाउ (२.२०३) < वायुः, वहु (२.६१) < वधूः, महु (१.१६३) < मधूकः । ई-गोरी (१.३) < गौरी, कित्ती (१.७७) < कीर्तिः, घरणी (१.१७४) < गृहिणी । ऊ-वहू (२.१९३) < वधूः, विज्जू (२.१८१) < विद्युत् ।
परवर्ती अपभ्रंश तथा अवहट्ठ की अन्य कृतियों से तुलना करने पर पता चलता है कि यद्यपि प्रा० पैं० में प्रातिपदिक का कर्ताकारक ए० व० बाला प्रयोग सबसे अधिक पाया जाता है, तथापि -ओ एवं -उ वाले रूप भी संख्या में कम नहीं है। संदेशरासक में -अ (शुद्ध-प्रातिपदिक या जीरो-फोर्म) तथा -3 वाले रूपों का बाहुल्य है, किन्तु वहाँ भी प्राकृत गाथाओं में -ओ रूप मिलते हैं। उदाहरण के लिए हम निम्न दो गाथाएँ उपस्थित कर सकते हैं, जहाँ ये रूप पाये जाते हैं ।
१. Bhayani : Sandesarasaka (study)$53
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