Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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पद- विचार किन्तु १००० ई. की पूर्वी अपभ्रंश में ये रूप बहुत कम पाये जाते हैं, इनकी गणना क्रमशः ५.२२% तथा २.९८ % है। इससे स्पष्ट है कि ए वाले रूप फिर भी इस वर्ग में अधिक है। दोहाकोष से इनके उदाहरण निम्न है :
उएसे, भंगे, सहाबे, परमत्थये, रोहिये ।
"
प्राकृतपैंगलम् में, ए वाले रूप नगण्य हैं, किन्तु पूर्वी म० भा० आ० की प्रवृत्ति के छुटपुट निदर्शन होने के कारण प्रा० ० में ये अपवाद स्वरूप होने से यहाँ संकेतित किये गये हैं। प्रा० ० से इनके उदाहरण ये है :जुत्ते (१.९१) युक्तः, उत्ते (१.९१) उक्तः, एके (१.९१) एक:, गअजूहसँजुते (१.९२) गजयूथसंयुक्त: ( यह रूप वस्तुतः 'पुत्ते' (करण कारक का रूप) की तुक पर पाया जाता है), छंदे (१.१९६) - छंदः, वंदे (१.१९६) < 'वंदितं ('छंदे' से तुल मिलाने के लिए) कंपए (२५९) कम्पितः झंपए (२.५९) झंपित (आच्छादितः) । इन रूपों के प्रयोग का अध्ययन करने पर पता चलता है कि ये सब छन्दोनिर्वाहार्थं प्रयुक्त हुए हैं। या तो इनका प्रयोग वहाँ हुआ है, जहाँ दीर्घ अक्षर (लोंग सिलेबिल) अपेक्षित है, या वहाँ जहाँ तुक मिलाना आवश्यक है । (३) उ, अउ वाले रूप ये मूलतः अपभ्रंश के रूप हैं; प्राचीन हिंदी में ये शुद्ध प्रातिपदिक रूपों के साथ साथ अधिक संख्या में प्रयुक्त होते हैं तथा इनके अवशेष मध्यकालीन हिंदी काव्य तक में देखे जा सकते हैं। उ वाले रूप अपभ्रंश तथा अवहट्ट में कर्म कारक ए० व० में भी पाये जाते हैं। हम यहाँ केवल कर्ता ए० व० वाले रूपों के ही उदाहरण दे रहे हैं :
घणु (१.३७) - घनं णंदउ (१.७५) - नंदकः, भद्दउ (१.७५) < भद्रकः, गअणु (१.७५) - गगनं, सरहु (१.७५) शरभः, भामरु (१.८०) ८ भ्रामरः, मक्कड़ (१.८०) < मर्कटः, वाणरु (१.८०) ८ वानर, अहिअरु (१.८०) - अहिवरः, अचलु (१.८७) - अचलः, किअउ (१.९२ ) < कृतः, गणेसरु (१.९३ ) < गणेश्वरः, महिहरु (१.९६ ) < महीधरः, संकरु (१.१०१) < शंकरः, संकरचरणु (१.१०४) - शंकरचरणः, धुत्तउ (१.१६९) धूर्तकः, 'जुत्तउ (१.१६९) < °युक्तकः; भत्त (२.६१) ८ भक्तः (= भक्तकः), पुत्तउ (२.६१ ) < पुत्रकः, पुणवंतउ (२.६१) पुण्यवान्, गुणमंतउ (२.१४९) < गुणवान्, हसंत (२.१४९) हसन् वंझउ (२.१४९) वंध्या (स्त्रीलिंग), मोरउ (२.१८१ ) < मयूरः, भम्मरु (२.१८१) < भ्रमरः, हिअलु (२.१९१) < हृदयः ।
इनके अतिरिक्त और कई उ वाले रूप हैं। कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत के -उवाले उदाहरणों के लिए विशेष दे० ६ ११३
(४) शून्य विभक्ति (जीरो) अविकारी कारकों के ए० व० में शुद्ध प्रातिपदिक या शून्य रूपों का प्रयोग अपभ्रंश में ही प्रचलित हो गया है। दोहाकोष की भाषा में ये रूप विशेष पाये जाते हैं। इसमें एक ओर अकारांत पुलिंग, नपुं०, स्त्रीलिंग शब्दों के रूप आते हैं, दूसरी और अन्य स्वरांत रूप अकारांत शब्दों में कारक ए० व० में आ विभक्ति वाले रूप भी मिलते हैं, जिनका संकेत दोहाकोष की भाषा में डा० शहीदुल्ला ने किया है। ये आ वाले रूप दोहाकोष की प्राचीन विभाषा में नहीं मिलते, किंतु १००० ई० के पास की विभाषा में १२.६८% हैं । ये प्रयोग कण्हपा के दोहों या पदों में नहीं पाये जाते सरहपा के दोहों में ये पाँच अंतिम पद्यों में पाये गये हैं। हेमचन्द्र में भी आ वाले रूप देखे गये हैं :'घोडा' (एइति घोडा), 'भल्ला हुआ जो मारिया, आदि। ये आकारांत सबल रूप, जिनका प्रचार खड़ी बोली में पाया जाता है, मूलतः अकारांत शब्दों के ही प्ररोह हैं। प्रश्न हो सकता है, क्या ऐसे स्थलों पर 'आ' सुप् विभक्ति मानी जाय ? हमारी समझ में यहाँ आ सुप् विभक्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि ये शुद्ध प्रातिपदिक रूप ही है :घोटक:> घोडओ घोडउ घोडअ घोड़ा। इसी से संबंद्ध वे रूप हैं, जहाँ अकारांत शब्दों के अविकारी कारक ए० व० में शुद्ध प्रातिपदिक रूप (अ रूप या जीरो फोर्म) के साथ ही साथ 'आ' वाले रूप भी पाये जाते हैं। 'आ' वाले रूपों को सुविधा की दृष्टि से डा० शहीदुख ने अलग वर्ग में रख दिया है। इस वर्ग में प्राय: छन्दोनिर्वाहार्थ विकृत प्रातिपदिक रूप मिलते हैं, जहाँ कर्ता कर्म ए० व० में भी छन्द के कारण प्रातिपदिक के पदांत 'अ' को दीर्घ
१. M. Shahidullah : Les Chants Mystiques (Introduction) p. 34 २. M. Shahidullah : Les Chants Mystiques (Introduction) p. 36
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