Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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ध्वनि-विचार
४२९ 'न' को सुरक्षित रक्खा है। पूर्वी अपभ्रंश में डा० शहीदुल्ला ने 'न' की स्थिति पदादि में ही नहीं पदमध्य में भी स्वीकार की है, तथा कतिपय छुटपुट रूप ऐसे मिलते हैं :-गअन (Kगगन), पबन (<पवन) । आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में पदादि 'न' सुरक्षित है। सिंधी, गुजराती, मराठी, राजस्थानी, ब्रजभाषा तथा पंजाबी में भी यह 'न' सुरक्षित है; ब्रजभाषा में तो पूरबी भाषाओं की तरह (उड़िया को छोड़ कर) मूर्धन्य 'ण' मिलता ही नहीं-केवल तत्सम शब्दों में पदमध्य में यह पाया जाता है, किंतु यहाँ भी उच्चारण शुद्ध प्रतिवेष्टित न होकर वर्त्य कोटि का ही होता है । शौरसेनी अपभ्रंश में विकसित न० भा० आ० भाषाओं में गुजराती, राजस्थानी विभाषायें, पंजाबी तथा कथ्य खड़ी बोली (दिल्ली, मेरठ, बुलंदशहर की कथ्य विभाषा) में केवल अनादि 'ण' पाया जाता है । इससे यह स्पष्ट है कि प्राकृत-अपभ्रंश में चाहे वैयाकरणों ने पदादि 'न' को 'ण' बना दिया हो, कथ्य रूप में संभवतः पदादि 'ण' (प्रतिवेष्टित या मूर्धन्य अनुनासिक व्यंजन) ध्वनि नहीं रही होगी। प्राचीन भारतीय आर्य भाषा की पदादि 'न' ध्वनि का प्राकृतापभ्रंश काल (म० भा० आ०) में भी दन्त्य या वय॑ उच्चारण ही रहा होगा। कहना न होगा, पालि में भी पदादि 'न' सुरक्षित है। यदि पदादि 'ण' म० भा० आ० में होता तो वह किसी न किसी बोली में आज भी सुरक्षित होना चाहिए था । साथ ही द्रविड भाषा वर्ग में भी पदादि 'ण' का अभाव है और तेलुगु में तो पदमध्य स्थिति में भी 'ण' की अपेक्षा 'न' की प्रचुरता पाई जाती है। यह एक ध्वनिशास्त्रीय तथ्य जान पड़ता है कि पद के आदि में ही जिह्वा को प्रतिवेष्टित कर 'ण' का उच्चारण करना अत्यधिक कठिन है, तथा हमेशा मुख-सुख और उच्चारण-सौकर्य का ध्यान रखने वाली कथ्य भाषा ने पदादि दन्त्य या वय॑ 'न' को यथावत् ही सुरक्षित रक्खा होगा, प्रतिवेष्टित (retroflex) न किया होगा । स्वरमध्यग स्थिति में भी 'ण' का उच्चारण शुद्ध प्रतिवेष्टित न होकर उत्क्षिप्त प्रतिवेष्टित (flapped retroflex) रहा होगा, क्योंकि हिंदी तथा राजस्थानी गुजराती में सर्वत्र यह 'ड' (d) का अनुमासिक रूप न होकर 'ड' (r) के अनुनासिक रूप (ड) की तरह उच्चरित होता है ।
न-ण का लिपिसंकेत परस्पर इतना गड़बड़ा दिया जाता है कि संदेशरासक के संस्करण में पदादि में एक साथ न-ण दोनों रूप मिलते हैं । संदेशरासक के शब्दकोष में ण-न आदि वाले शब्दों में ५४ : १३ का अनुपात है । स्पष्ट है कि वहाँ भी हस्तलेखों में बहुतायत 'ण' आदि वाले रूपों की ही है । 'पण' तथा 'ह' के लिए वहाँ नियतरूपेण 'न' तथा 'न्ह' रूप मिलते हैं, मूर्धन्य वाले रूप नहीं । पदादि 'ण' उक्तिव्यक्तिप्रकरण की भाषा में नहीं मिलता, जब कि यहाँ पदमध्यगत 'ण' मिलता है, जैसा कि डा० चाटुा का संकेत है :
“The cerebral ạ, now lost in the Ganges Valley, east of the Panjab, using dialects of Western Hindi (it is not found now in Hindustani or Khari boli, in Braj, Kanauji and Bundeli, in the Kosali dialects, in the Behari dialects, in Bengali and in Asamese but it is still present in Oriya, in Punjabi, in Rajasthani-Gujarati, in Sindhi & in Marathi), appears to have been present as a living sound in Old Kosali of the 'Ukti-vyakti.""
प्राकृतपैंगलम् के उपलब्ध हस्तलेख प्रायः पदादि 'न' का 'ण' रूप में परिवर्तन करते हैं। पदमध्य में भी 'ण' ही मिलता है, तथा अधिकांश स्थलों पर 'ह', 'पण' भी इसी रूप में पाये जाते हैं। इसके छुटपुट अपवाद अवश्य मिले हैं।
काण्ह (१.९)-A. कह्न, C.D. कान्ह, K. काह.
ण (१.११)-केवल C. हस्तलेख में 'न'. १. दे० - Jacobi : Bhavisattaaha. (Glossar) p. 163-68. Alsodorf : Kumarapalapratibodha. (Glossar) p.
165-68 २. M. Shahidullah : Les chants Mystiques. p. 36 ३. डा० धीरेंद्र वर्मा : ब्रजभाषा. $ १०५. पृ० ४३ ४. भोलाशंकर व्यास : संस्कृत का भाषाशास्त्रीय अध्ययन पृ० १६ (१९५७) ५. Caldwell : Comparative Grammar of the Dravidian Languages. p. 154 (1913 ed.) ६. दे०-धीरेंद्र वर्मा : हिंदी भाषा का इतिहास ६ ५९ पृ० १२०, (चतुर्थ संस्करण) ७. Dr. Chatterjea : Uktivyakti (Study) $ 27, p. 14
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