Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम्
महाप्राण व्यञ्जनों के पूर्ववर्ती अल्पप्राण ध्वनि के द्वारा द्वित्व-रूप होने पर वे ख, ग्घ, च्छ, ज्झ, टु, ड्ढ, स्थ, द्ध, प्फ, ब्भ रूप में मिलते हैं।" इतना होने पर भी दक्षिण से मिले हस्तलेखों में संयुक्त महाप्राण ध्वनियों में दोनों का महाप्राणत्व उपलब्ध होता है। उन उत्तरी भारत के नागरी हस्तलेखों में भी यह पद्धति पाई जाती है, जो दक्षिणी हस्तलेखों से नकल किये गये हैं या उनसे प्रभावित हैं। ऐसे हस्तलेखों के प्रभाव से दक्षिण से प्रकाशित ग्रन्थों में भी या तो महाप्राणों का द्वित्व पाया जाता है या उसके पूर्व एक छोटा सा वृत्त पाया जाता है :-'अध्य या अ°घ-अग्घ=अर्घ्य ।' इसका प्रभाव अन्यत्र प्रकाशित प्राकृत तथा जैन ग्रन्थों पर भी देखा गया है। पिशेल की पूर्ववर्ती धारणा यह थी कि यह प्रवृत्ति (महाप्राणों का द्वित्व) केवल दाक्षिणात्या विभाषा (मृच्छकटिक के चन्दनक की विभाषा) में ही पाई जाती है, किंतु बाद में मागधी प्राकृत में भी ऐसे स्थल देखकर वे इस निर्णय पर पहुँचे कि इसका कोई भाषावैज्ञानिक महत्त्व नहीं है, अपितु यह मात्र लिपि-शैली की प्रक्रिया है ।
प्राकृतपैंगलम् के हस्तलेखों को डा० एस० एन० घोषाल ने इस दृष्टि से दो वर्गों में बाँटा है :-पूर्वी हस्तलेख एवं पश्चिमी हस्तलेख । इनकी एतद्विषयक प्रवृत्तियों का अध्ययन वे एक शोधपूर्ण विचारोत्तेजक निबंध में उपस्थित करते हैं, जिसका निष्कर्ष निम्न है ।
पूर्वी वर्ग के प्राकृतपैंगलम् के हस्तलेखों में पश्चिमी वर्ग के हस्तलेखों से लिपि-शैलीगत स्पष्ट भेद दृग्गोचर होता है। पश्चिमी वर्ग के हस्तलेखों में महाप्राण व्यञ्जनों का द्वित्व वाला लिपि-संकेत मिलता है, जब कि हम प्रथम ध्वनि की अल्पप्राणता की आशा रखते हैं, अर्थात् वहाँ ख्ख, घ्य, छ्छ, झ्झ आदि लिपि-संकेत मिलते हैं। किंतु पूरबी वर्ग के हस्तलेखों में जो बँगला अक्षरों में लिपीकृत हैं, दोनों ध्वनियों में प्राणता को लुप्त कर देने की प्रवृत्ति (अर्थात् ट्ट, क, ग्ग आदि रूपों का प्रयोग) पाई जाती है। यह प्रवृत्ति मूर्धन्य ध्वनियों में अधिक मिलती है, अन्य ध्वनियों में अपेक्षाकृत बहुत कम। इस प्रकार उन्हें पूना से प्राप्त हस्तलेखों में अधिकांशतः ख्ख, घ्य, छछ, इझ आदि रूप मिलते हैं। नीचे डा० घोषाल के द्वारा संकेतित लिपिसम्बन्धी विविध पाठान्तरों में से कतिपय उन्हीं के लेख से उद्धृत किये जा रहे हैं :मात्रावृत्त छन्द ३. D. 1, 2, 4, 6, 11. बुढओ (=बुड्डओ).
१७. D. 1, 2, 5, 6. गुरुमझ्झो (=गुरुमज्झे). ३३. D. 1. 2. 4. 6. 11. मझ्झलहू (मज्झलहू). ४६. D. 1. 4. 6. बुझ्झह (=बुज्झह). ५९. D. 2. 4. 6. बिख्खाआ (=बिक्खाआ). ६५. D. 1.2.5. 6. गुरुमझ्झा, D. 4. गुरुमझ्झ. (=गुरुमज्झा ) ६७. D. 2. 4. 5. 8. पेख्खहि (=पेक्खहि). ८५. D. 2. 5. णिभ्भंत (=णिभंत). ९५. D. 2. 4.5. अख्खर अख्खर (=अक्खर अक्खर). १०१. D. 1. 2. 4. 6. मझ्झ...बुझ्झ (मज्झ...बुज्झ).
१२९. D. 2. 5. लेख्खह (=लेक्खह). वर्णवृत्त छन्द ८४ D. 1. 4. 6.7. मज्झ (=मज्झ)
इसके प्रतिकूल डा० घोषाल को कलकत्ता से मिले हस्तलेखों में क, ग्ग, दृ.... जैसे रूप मिलते हैं, जिनके कतिपय निदर्शन भी हम वहीं से उद्धत करते हैं :१. Pischel : Prakrit Grammar (Eng. trans. by Dr. Subhadra Jha) $ 193. p. 144 २. ibid8193 ३. ibid $26. p. 28 8. Dr. S. N. Ghosal : A Note on the Eastern and Western Mss. of the Prakritapaingalam. (Indian
Historical Quarterly : March, 1957)
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