Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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ध्वनि- विचार
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अ-ऋ-मईदह (१.२९- मृगेंद्र ), विसज्ज (१.३६ विसृज्यते) घरणि (१.३८ - गृहिणी), कआवरहो (१.५५८ कृतापराधः ), णचइ (१.१६६ - नृत्यति ) ।
आ
काण्ड (१.९८कृष्ण) ।
इ <ऋ- दिट्ठ (१.२२<दृष्टं); अमिअ (१.२९ - अमृत), भिच्च (१.३५ – भृत्य), उकिट्ठा (१.४४ < उत्कृष्टा), विट्टि (१.७२ < वृष्टि), किअउ (१.९२ - कृत: ), घित्ता (१.१३० < घृत) ।
ई < ऋ - माई (१.३ < मातृ-), तीअ (१.५४ < *तिईअ < तृतीय), धाई (१.६० < धातृ - ), दीसए (१.८८ <* दिस्सए < दृश्यते) ।
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इन उदाहरणों में द्वितीय तथा चतुर्थ में मूलतः ऋ का ह्रस्व इ ही होता है, जो संधि तथा पूर्ववर्ती स्वर के दीर्घीकरण के कारण 'ई' हो गया है ।
उ ऋ - वुड्डओ (१.३ < वृद्धकः), कुणइ (१.३ < कृणोति), पुहवी (१.३४ - पृथिवी), पुच्छल (१.४९ </ पृच्छल - पृष्ट), पाउस (१.९८८ प्रावृष) |
ऐ ऋ- गण्हइ (१.६७ – गृह्णाति ।
रिॠरिद्धि (१.३६ ऋद्धि) उव्वरिआ (१.०४
उद्वृत्त) सरि (१९.४५ - सदृश ) ।
वर्णरत्नाकर में 'ऋ' चिह्न मिलता है, किंतु उसका उच्चारण 'रि' ही पाया जाता है : - तृपर्व्व (वर्ण ७५ क) -त्रिपर्व्व ।"
मात्रासंबंधी परिवर्तन
$ ६३. गायगर ने 'पालि भाषा और साहित्य' में इस बात का संकेत किया है कि पालि-प्राकृत (म० भा० आ०) में संयुक्त व्यञ्जन का पूर्ववर्ती दीर्घ स्वर तथा सानुस्वार स्वर ह्रस्व हो जाता है । इतना ही नहीं समास में प्रथम पद के अंतिम ह्रस्व स्वर तथा द्वितीय पद के विवृत (संयुक्त व्यंजन से पूर्ववर्ती) हस्व स्वर की संधि होने पर भी केवल ह्रस्व स्वर ही होता है, दीर्घ स्वर नहीं। इसी सिद्धांत को " मात्रा नियम" (Law of Mora) कहा जाता है। यदि हम दीर्घ स्वर के लिये V, ह्रस्व स्वर के लिये V तथा व्यंजन के लिये C चिह्न मान लें, तो यह कहा जा सकता है कि संस्कृत का VCC ध्वनिसमूह प्राकृत में VCC हो जाता है। इसी तरह यदि अनुस्वार के लिये M चिह्न मान लें, तो कह सकते हैं कि संस्कृत का VM का प्राकृत में VM विकास होता है प्रा० ० से इस प्रक्रिया के कुछ उदाहरण ये हैं :जिणो (१.३ (जीर्ण:), मत्त (१.१ < मात्रा), पत्त (१.१ < प्राप्त), कज्ज (१.३६ < कार्य), पुव्वद्धे (१.५२ - पूर्वार्द्ध), गाहाणं (१.५८ - गाथानां ) । समास या संधि में भी इस प्रक्रिया के यत्र-तत्र दर्शन होते हैं :- चरणंते (१.२ < चरणांते), विबुद्धे (२.१७४ बिच+ओ) । परवर्ती उदाहरण में अ का लोप तथा 'ओ' का 'उ' परिवर्तन 'मात्रा नियम' की पाबंदी के लिये ही है ।
है
प्रा० पैं० की भाषा में छन्दोनुरोध से हस्व स्वर के दीर्घीकरण तथा दीर्घस्वर के इस्वीकरण का विवेचन किया जा चुका | पदांत दीर्घ स्वर ध्वनि के ह्रस्वीकरण का विवेचन $ ६२ में हो चुका है। संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व स्वर के दीर्घीकरण तथा संयुक्त व्यंजन के सरलीकरण संबंधी मात्रात्मक परिवर्तन के लिये दे० $ ६८ । प्रा० पैं० में पदादि स्वर ध्वनि 'आ' के हस्वीकरण के भी छुटपुट उदाहरण मिल जाते हैं। यह परिवर्तन बलाघात (stress accent) के स्थानपरिवर्तन के कारण हुआ जान पड़ता है। एक उदाहरण यह है :
'अहीर' (१.१७७ < आभीर) ।
१. Chatterjea : Varnaratnakara $10. p. xli
R. Geiger: Pali Language and Literature § 3
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