Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् भी अपभ्रंश काव्यों में देखी जाती है। यह ह्रस्वीकरण तीन तरह से किया जाता है : (१) दीर्घ स्वर को ह्रस्व बनाकर, (२) व्यञ्जन द्वित्व का सरलीकरण करते हुए भी पूर्ववर्ती स्वर को दीर्घ न बनाकर, (३) अनुस्वार को अनुनासिक बनाकर। प्रा० .० से इस प्रवृत्ति के उदाहरण ये हैं :
(अ) दीर्घ स्वर का ह्रस्वीकरण :
लख (१.१५७ लाख), सुहइ (१.१५८-सोहइ), जणइ (१.१९९ जाणइ), सरिर (२.४०=सरीर), कआ (२.१३४ काआ), पराहिण (२.१३६=पराहीण), तिसुलधर (२.१३८ तिसूलधर), चंदमल (२.१९०=चंदमल < चंद्रमाला), जिवण (२.१९३=जीवण), हमिर (२.२०४=हमीर) ।
(आ) व्यञ्जन द्वित्व का सरलीकरण :
वढइ (१.१२० वड्डइ<वर्धते), जुझंता (२.१८३ जुझंता), सल (२.२०४=सल्ल < शल्य), विपख (२.२०४-विपक्ख < विपक्ष), णचंता (२.१८३=णच्चंता), णिसास (२.१३४-णिस्सास), णचइ (१.१६६=णच्चइ), वखाणिओ (२.१९६ वक्खाणिओ)।
(३) अनुस्वार का अनुनासिकीकरण :-इस प्रवृत्ति के उदाहरण बहुत कम मिलते हैं :-सँतार (१.९-संतार), सँजुत्ते (१.९२ संजुत्ते)। स्वर-परिवर्तन
६ ६१. पदांत दीर्घ स्वर का ह्रस्वीकरण :
तद्भव शब्दों में उदात्त स्वर (accent) का स्थान परिवर्तन होने के कारण अपभ्रंश में आकर आकारांत, ईकारांत, ऊकारांत शब्द अकारांत, इकारांत, उकारांत हो गये, अर्थात् अपभ्रंश की एक विशेषता पदांत दीर्घस्वर का ह्रस्वीकरण है। न० भा० आ० में आकर तद्भव शब्दों में मूल आकारांत स्त्रीलिंग शब्द तक अकारांत हो गये हैं। 'गंगा', 'यमुना' जैसे शब्दों के मूल तद्भव रूप 'गंग', 'जमुन' ही हैं, अन्य रूप या तो तत्सम है या स्वार्थे-क वाले रूपों के विकास जान पड़ते हैं । प्रा० पैं. की भाषा से इस प्रवृत्ति के कतिपय निदर्शन ये हैं :
भास (१.२ भासा < भाषा), तरुणि (१.४<तरुणी), गाह (१.३६<गाहा), संख (१.४५<संखा <संख्या), गिव (१.९८ <गीवा-ग्रीवा), दिस (१.१८९८ दिसा < दिशा), विग्गाह (१.५१८ विगाथा) मत्त (१.१३८<मात्रा), गोरि (१.२०९<गौरी), डाकिणि (१.२०९<डाकिनी), केअइ (२.१९७<केतकी), मंजरि (२.१९७<मंजरी), रेह (२.१९६८रेखा), विओइणि (२.२०३ <वियोगिनी), सुंदरि (२.२११< सुंदरी) । ऋ-ध्वनि का विकास
६२. प्राकृत-काल में ही 'ऋ' ध्वनि का उच्चारण लुप्त हो गया था, इसके अ, इ या उ रूप पाये जाते हैं। प्रायः द्वयोष्ठय ध्वनियों से परवर्ती होने पर ऋ का उ रूप होता है, वैसे इसके अपवाद भी मिलते हैं; अन्यत्र इसका अ या इ होता है। कुछ स्थानों पर इसका 'रि' रूप भी मिलता है, जैसे 'ऋ' का 'इसी-रिसी' दुहरा विकास देखा जाता है । हेमचंद्र ने अपभ्रंश में 'ऋ' का अस्तित्व माना है :-तृणु, सुकृदु, किंतु ऐसा जान पड़ता है कि अपभ्रंश में इसका उच्चारण 'रि' था । प्रा० पैं० में ऋ का विकास विविध रूपों में देखा जाता है, कुछ हस्तलेखों में 'ऋद्धि' (१.३६) में. 'ऋ' चिह्न मिल भी जाता है, किंतु अधिकांश हस्तलेख इस लिपि चिह्न का प्रयोग नहीं करते । प्रा० पैं० में 'ऋ' का निम्न विकास देखा जाता है:१. Bhavisattakaha (Intro.) $ 16. (2), Sanatkumaracaritam (Intro.) $ 3-I. Sandesarasaka (Study) $ 17 R. Bhavisattakaha $ 10. Sandesarasaka (Study) $ 8 $ 41 (d) ३. The -a termination is lost to all tadbhava forms in NIA.-Chatterjea : O. D. B. L. Vol. 1877 B.p.
161 ४. S. P. Pandit : हेमचन्द्र-प्राकृत व्याकरण ८.४.३२९ तथा वृत्ति ।
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