Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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ध्वनि-विचार
४३५ कठनालिक स्पृष्ट (glottal stop) पाया जाता है। इतना ही नहीं, राजस्थानी में असंयुक्त सघोष महाप्राण ध्वनियों की प्राणता भी पदादि में होने पर कण्ठनालिक स्पृष्ट हो जाती है, तथा पदमध्यग स्थिति में होने पर आद्य अक्षर में समाहित (absorbed) हो जाती है। यह विशेषता कुछ स्थितियों में गुजराती में भी पाई जाती है, जहाँ हि० समझना, सीखना, क्रमशः समजवू, सिकवू हो जाते हैं तथा राज० में भी इनके समजबो, सीकबो उच्चारण पाये जाते हैं ।
पदमध्यग 'ह' के लोप की प्रवृत्ति दोहाकोश, संदेशरासक तथा पुरानी राजस्थानी भाषा तक में पाई जाती है। टेसिटोरी ने बताया है कि पु० प० राज० में स्वरमध्यग 'ह' सामान्यत: लुप्त हो जाता है, यथा 'काँ (रत्न १८) < अप० कहाँ < कम्हा < कस्मात्; जाणइ (भ० ४४) < जाणहि <* जानसि (=जानासि), नयणे (फ० ७८३, ७१) < णअणहिँ <* नयनभिः (=नयनैः), | < महु < मह्यम् । किंतु प्राचीन कविता में 'ह' सुरक्षित रहता है :-गयाँह < गआहँ < गतासां (=गतानाम्), गुणिहिँ < *गुणेभिः (=गुणैः), बापह < बप्पह, मनहिँ < मणहिँ <*मनस्मिन् (=मनसि)। प्रा० पैं० की प्राचीन कविता शैली ने स्वरमध्यग 'ह' को प्रायः सुरक्षित रक्खा है तथा अधिकांश हस्तलेख भी प्रायः इसी प्रवृत्ति का संकेत करते हैं। वैसे 'तुअ' (प्रा० .० १.१०८, १.१५७, २.१३०) में 'ह' के लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है, जिसका परिनिष्ठित अपभ्रंश रूप 'तुह' होगा । यह रूप संदेशरासक की भाषा में भी मिलता है :
(१) तुट्टी देह ण हउ हियउ, तुअ संमाणिय पिक्खि ॥ (७८/२) (२) कावालिय कावालिणि तुय विरहेण किय ॥ (८६/४)
प्रा० पैं० की भाषा में संदेशरासक की तरह कुछ–इ (>-ए) विभक्ति चिह्न वाले अन्य पु० ब० व० के वर्तमानकालिक तिडंत रूप मिलते हैं। कहिज्जइ (१.१४६ < कथ्यन्ते), कहीजे (१.१०० < कथ्यन्ते), किज्जइ (१.१०५ < कियंते), किज्जे (२.१९५ < क्रियते), खाए (२.१८३ < खादंति), चलइ (१.७३ < चलंति), थक्के (२.२०४ <* स्थगन्ति । अपभ्रंश में वर्तमान अन्य पु० ब० व० का चिह्न '-हिँ' था; जैसे :
'मुह कबरि-बंब तहें सोह धरहिँ । नं मल्लजुज्झु ससि राहु करहिँ ।' (हेम० ८.४.३८२) । यह चिह्न '-न्ति' के साथ भविसत्तकहा में भी मिलता है। संदेशरासक में इस '-हिँ' (-अहिँ) के प्राणतांश (aspiration) तथा नासिक्यांश (nasalization) का लोप कर '-अइ' वाले रूप १० बार मिलते हैं। प्रा० पैं. के उक्त रूपों में भी यही विकासक्रम मानने पर '-ह' का लोप माना जा सकता है । इन छुटपुट रूपों के अतिरिक्त प्रा० पैं० में अन्यत्र '-ह' के लोप की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती । इस तरह के -अई' वाले वर्तमान ब० व० रूप प्रा० प० राज में भी मिलते हैं। ध्वनिपरिवर्तन
५६. अपभ्रंश की ध्वन्यात्मक संघटना (phonology) प्रायः प्राकृत की ध्वन्यात्मक संघटना से अभिन्न है। कतिपय विशिष्ट लक्षणों के अतिरिक्त, जो खाली अपभ्रंश में ही मिलते हैं, समस्त म० भा० आ० भाषा-वर्ग का ध्वन्यात्मक संगठन एक-सा है । इस तथ्य का संकेत प्रायः सभी भाषावैज्ञानिकों ने किया है। अपभ्रंश की इन कतिपय विशेषताओं का संकेत हम लिपि-शैली के संबंध में कर चुके हैं तथा यथावसर 'अनुशीलन' के इस अंश में भी करेंगे । किंतु 'प्राकृतपैंगलम्' की अवहट्ट में अपभ्रंश की अधिकांश विशेषताओं के मिलते हुए भी कुछ निजी विशेषतायें हैं :१. चाटुा : राजस्थानी भाषा पृ० २८.
२. वही पृ० २६. ३. M. Shahidullah : Les Chants Mystiques. p. 34. ४. Bhayani : Sandesarasaka (Study) 834 B. p. 15. ५. Tessitori : O. W. R.837 (1). ६. Jacobi : Bhavisattakha $33.
७. Bhayani : Sandesarasaka (Study) 834. ८. Tessitori : O. W. R.8 117. ९. Jacobi : Introduction to Bhavisattakaha (Phonogy) $ 1. Introduction to Sanatkumaracaritam (Phonology) $1. Bhayani : Sandesarasaka (Study) $ 15. Tagare : Historical Grammar of Apabhramsa. (Intro.) $ 15.
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