Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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ध्वनि-विचार
४२७ वकार को ही व-श्रुति मानना ठीक होगा । डा० याकोबी ने 'भविसत्तकहा' में व-श्रुति का प्रचुर प्रयोग संकेतित किया है। यह श्रुति उन स्थानों पर पाई जाती है, जहाँ उ, ऊ या ओ के पश्चात् 'अ'-ध्वनि पाई जाती है । कतिपय निदर्शन ये हैं :-अंसुव (=अंशुक), कंचुव (=कंचुक), भुव (=भुज), हुवय (=भूत), हुववह (=हुतवह), हुवास (=हुताश), गन्धोवय (गन्धोदक) । उक्तिव्यक्तिप्रकरण की पुरानी पूरबी हिंदी में भी डा० चाटुा ने व-श्रुति का संकेत किया है; जहाँ उ-ओ ही नहीं आ के बाद भी 'व'-श्रुति पाई जाती है :-करोव (५२/९) (जिसके साथ वैकल्पिक रूप 'करोअ' (५२/६) भी मिलता है); गावि (५/१४) (वै० रू० गाई १३/२७)। सन्देशरासक में श्री भायाणी ने निम्न स्थलों को उदाहृत किया है :
रुवइ (=रुदति) २५ अ; उवर (-उदर) १३५ अ केवइ (=केतकी) ५३ द, चावइ (=चातकी) १३३ अ.
व-श्रुति का प्रयोग मध्ययुगीन हिंदी के ग्रन्थों में भी देखा जाता है। जायसी के पद्मावत में 'कैलास' के लिए 'कबिलास' शब्द मिलता है, जो वस्तुतः 'कविदास' (=कइलास) वाला व-श्रुतिक रूप ही है ।
प्राकृतपैंगलम् में शुद्ध व-श्रुति वाले कतिपय छुटपुट रूप मिले हैं। कुछ निदर्शन ये हैं :गाव (२.८८), (=गायन्ति), आव (२.८८), (=आयाति), पावा (२.१०१), मेटावा (२.१०१) (निर्णयसागर सं० में इनके 'पाआ', 'मिटाआ' जैसे श्रुतिरहित रूप मिलते हैं।)
पाविज्जे (१.११२) (कलकत्ता सं० पाविज्ज), पावउ (२.१५५), आविअ (२.१६३) (कलकत्ता सं० आबिअ), घाव (२.१७३) (कलकत्ता सं० घाउ)
कलकत्ता संस्करण में सर्वत्र 'व' के स्थान पर 'ब' का प्रयोग मिलने के कारण व-श्रुतिक रूप भी 'ब' से चिह्नित मिलते हैं । व-श्रुति वाले कतिपय रूप संख्यावाचक शब्दों में भी मिलते हैं :
'बाईसा' का वैकल्पिक रूप निर्णयसागर सं० में एक स्थान पर 'वावीसा' मिलता है। इसी तरह 'चउआलिस' (११२०) का B हस्तलेख में 'चउवालिस' रूप मिलता है। व, ब तथा वँ का लिपीकरण
५१. अपभ्रंश के अधिकांश हस्तलेखों में व तथा ब दोनों के लिये प्रायः एक ही लिपिसंकेत 'व' का प्रयोग मिलता है । डा० याकोबी ने 'भविसत्तकही' के हस्तलेख के विषय में बताया है कि वहाँ सर्वत्र 'ब' के स्थान पर 'व' लिखा मिलता है, यहाँ तक कि 'ब्भ' के स्थान पर भी 'भ' ही मिलता है। संदेशरासक के हस्तलेखों में यह बात नहीं पाई जाती । वहाँ 'व' तथा 'ब' का स्पष्ट भेद अंकित है। वैसे कतिपय छुटपुट स्थानों पर 'ब' के लिए 'व' भी मिल
-णिवड (=णिविङ-निबिड) ४७ अ, वलाहय (=बलाहय बलाहक) १६० अ, वाह (=बाह बाष्प) ६५ ब, वोलंत (=बोल्लंत i.e. अब्रवीत्) ९५ स, पुष्कंबर (=पुष्कंबर-पुष्पाम्बर) २०२ ब, दूसरी ओर 'बाउलिय' (वाउलिय-व्याकुलिता) ९४ ब, जहाँ 'व' के स्थान पर 'ब' मिलता है ।
प्रस्तुत संस्करण में प्रयुक्त हस्तलेखों में A, B, C में सर्वत्र 'व' ही मिलता है, जो इसी चिह्न के द्वारा 'व' तथा 'ब' दोनों को संकेतित करता है । हस्तलेख D. में जो बाद का है, 'व' तथा 'ब' का स्पष्ट भेद मिलता है। किन्तु यहाँ भी कतिपय स्थानों में 'व' के लिए 'ब' मिलता है, 'बुड्ढओ' (१.३) (=बुड्ढओ-वृद्धकः) ।
प्राकृतपैंगलम् के निर्णयसागर वाले संस्करण में भी व-ब का भेद रक्खा गया है, किन्तु बिब्लोथिका वाले कलकत्ता संस्करण में सर्वत्र केवल 'ब'मिलता है, जो पूरबी हस्तलेखों में व' के वंगीय लिपीकरण का प्रभाव है। संस्कृत या प्राकृत १. Jacobi : Bhavisattakaha, Grammatik $3p. 25 R. Dr. Chatterjea : Uktivyakti : (Study) 8 3 p. 4 3. 'Fur 'ba' wird fast immer Va' geschrieben, selbst 'vbha' fur 'bbha'. - Jacobi : Bhavisattakaha :
(Introduction) p. 22
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