Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् है तथा केवल अ और आ के पश्चात् ही नहीं मिलती (जैसा कि कतिपय प्राकृत हस्तलेखों में सीमित कर दिया जाता है), किंतु अन्य स्वरों के बाद में अत्यधिक नियत रूप से पाई जाती है। (दे० याकोबी : भविसत्तकहा भूमिका : ग्रामातीक ६२) अल्सदोर्फ को उपलब्ध 'कुमारपालप्रतिबोध' के हस्तलेखों में भी यह पद्धति पाई जाती है। वहाँ अ-आ के साथ तो य-श्रुति का नियत प्रयोग पाया ही जाता है, किन्तु इसका अस्तित्व अन्य स्वरों के साथ भी देखा जाता है। प्रो० अल्सदोर्फ ने इसे स्पष्ट करते हुए निम्न तालिका दी है :
एअ : एय =११ : ४; ओअ: ओय =१० : ४ उअ : उय =९ : ४, ऊअ : ऊय =६ : १ ईअ : ईय =२ : १।
संदेशरासक के हस्तलेखों में भी इसका प्रयोग जैन प्राकृत की तरह केवल अ-आ के साथ ही मिलता है। वहाँ इ-ई तथा उ-ऊ के साथ य-श्रुति नहीं मिलती । संदेशरासक के B हस्तलेख में अवश्य 'मयूह' (१३७ ब) रूप मिलता है, किंतु श्री भायाणी ने इसे प्रामाणिक नहीं माना है, क्योंकि ग्रन्थ विभिन्न स्रोतों से गुजरता रहा है ।।
प्राकृतपैंगलम् के प्राप्त हस्तलेखों में केवल एक हस्तलेख में ही य-श्रुति की प्रचुरता है । यह हस्तलेख रामघाट, बनारस के जैन उपाश्रय से प्राप्त है तथा बहुत बाद का है। इसकी प्रति अपूर्ण होने के कारण लिपिकाल ज्ञात नहीं, किंतु यह विक्रम की अठारहवीं शती से प्राचीन नहीं जान पड़ता । लिपिकार स्पष्टतः कोई जैन है, जैसा कि इसके आरंभ में "श्री गुरुभ्यो नमः, अनंताय नमः" से स्पष्ट है। इस हस्तलेख में य-श्रुति का प्रयोग अधिकांशत: अ-आ के साथ पाया जाता है, कतिपय उदाहरण ये हैं :
D हस्तलेख-सायर (१.१), वलयं (१.१८), कणय (१.२१), गयआभरणं (१.२४), पयहरथणअं (१.२५), पय पाय (१.२६), गयरह (१.३०), बायालीसं (१.५०), बहुणायका (१.६३) ।
किंतु इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे स्थल भी हैं, जहाँ अन्यत्र भी य-श्रुति मिली है :D. हस्त:-पयोहरम्मि (१.१७), गुणरहिया (१.६५) । अन्य हस्तलेखों में य-श्रुति नहीं है, किंतु एक दो रूप देखे गये हैं :A. हस्त० वयासी (१.१२१), अन्य हस्तलेखों में 'बेआसी' रूप मिलता है। C. हस्त० कहियो (१.१६), अन्यत्र 'कहिओ' रूप मिलता है।
A. B. हस्त० जणीयो (२.१५) । निर्णयसागर में भी यही पाठ है, किंतु कलकत्ता संस्करण ने 'जणीओ' पाठ ही लिया है, इसकी पुष्टि वहीं पृ० २४९ पर प्रकाशित टीका से भी होती है, जिसमें 'जणीओ' प्रतीक ही दिया गया है। हस्त० C. 'जणीओ' पाठ ही लेता है।
मैंने प्रस्तुत संस्करण में य-श्रुतिहीन पाठ को ही प्रामाणिक माना है, तथा छुटपुट रूप में मिले य-श्रुति के रूप नगण्य हैं और वे वैभाषिक प्रवृत्ति का प्रभाव जान पड़ते हैं। वैसे १३ वीं-१४वीं शती की कथ्य पश्चिमी हिंदी में यश्रुति का अस्तित्व प्रधानरूपेण था, तथा बाद में मध्यकालीन हिंदी काव्यों में 'नयर' (=नगर), सायर (=सागर) जैसे प्रयोग भी इसकी पुष्टि करते हैं । व-श्रुति का प्रयोग
५०. य-श्रुति की भाँति कतिपय स्थानों पर व-श्रुति भी पाई जाती है। जिन स्थानों पर 'व' का प्रयोग संस्कृत के तत्सम या अर्द्ध-तत्सम शब्दों में पाया जाता है, तथा जहाँ यह णिजन्त क्रिया रूपों तथा संख्यावाचक शब्दों में 'प' का विकास है, वहाँ इसे श्रुति मानना हमें अभीष्ट नहीं । उद्वत्त स्वरों के बीच में सन्ध्यक्षर के रूप में प्रयुक्त 'लघुप्रयत्नतर'
१. Ludwing Alsdorf : Der Kumarapalapratibodha. - Zur Orthographie der Hs. 82, p.52 २. Sandesarasaka : (Study) $ 12
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