Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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(१)
संताति /
2)
प्राकृतपैंगलम् की पुरानी पश्चिमी हिन्दी
४१३ जीउ (१५४ स जीवु-जीव:), संताउ (७६ ब-संतावु-संताप:), तंडउ (=तंडवु-तांडवं), कओल (१८७ ब-कवोल कपोल),
(३) पदांत या पदमध्यगत 'अ' के पूर्व भी-व-का लोप कर दिया जाता है :तिहुयण (१८ अ त्रिभुवन) ।
वर्णरत्नाकर की भूमिका में भी डा० चाटुा ने बताया है कि श्रुतिगत व्-का कई स्थानों पर लिपि में कोई संकेत नहीं मिलता । चँदोआ चँदोवा < चन्द्रातप (२९ अ), गोआर < गोवार < गोपाल (२९ ब), मूस-रोअँ < "रोवँ <-लोमन् (५२ ब) ।
प्रा० पैं० की भाषा में मध्यग 'व्' के लोप के कतिपय निदर्शन देखे जा सकते हैं । यहाँ तो अधिकतर या तोव्-का उ वाला रूप मिलता है या फिर तृतीय कोटि के 'अ' वाले रूप मिलते हैं ।
संठावि (१.१५३ =संठाविवि</संठाव</संस्थापय) ठाउ (१.२०८<ठावर ठाम<स्थाने) चलाउ (१.१७१<चलाव<*चलापय(चालय)), देउदेउ (२.३०<देवदेवः), घाउ (२.१७३<घाव (=घाअ)<घातः), गाउ (२.१९८<गाव २.८७<गायति), आउ (२.१९८<आव २.८७<आयाति), णेउरो (२.२१०<णेवुरो नूपुरः),
कइवर (२.२०४<कविवर), (४) तिहुअण (१.१९५, १.१९६, २.४९ त्रिभुवन),
घुअ (२.८३<ध्रुव) ६३९. प्रा० पैं० में संज्ञा-विशेषण अकारांत पुलिंग शब्दों के प्राय: तीन तरह के रूप पाये जाते हैं :-(१) ओकारान्त रूप (२) आकारान्त रूप (३) अकारान्त रूप । उदाहरण के लिये नाग छन्द, भ्रमर जैसे शब्दों के प्रा० पैं० की भाषा में णाओ-णाआ-णाअ, छंदो-छंद-छंद, भमरो-भमरा-भमर जैसे तिहरे रूप देखने को मिलते हैं। गुजराती-राजस्थानी की खास विशेषता केवल प्रथम एवं तृतीय कोटि के ही रूपों को सुरक्षित रखना है, आकारांत रूप वहाँ नहीं पाये जाते । जब कि खड़ी बोली में अकारांत रूप एवं सबल आकारान्त रूप ही मिलते हैं । उदाहरणार्थ, स्वार्थे क-वाले रूप 'घोटकः' का विकास खड़ी बोली में घोड़ओ >घोडउ >*घोडअ>घोड़ा पाया जाता है। ब्रजभाषा के आदर्श कथ्य रूप में वस्तुतः खड़ी बोली की तरह आ-रूप (घोड़ा) ही हैं, यह विशेषता दोआब तथा रुहेलखण्ड की ब्रजभाषा में देखी जा सकती है; जब कि मथुरा के पश्चिम तथा दक्षिण की ब्रजभाषा में ये आकारांत रूप न मिलकर ओकारांत या औकारांत (घोडो-घोडौ) रूप मिलते हैं। ब्रजभाषा पर यह राजस्थानी-गुजराती भाषागत प्रवृत्ति का प्रभाव है। किंतु आदर्श ब्रजमें भी भूतकालिक कर्मवाच्य निष्ठा प्रत्यय के रूप ओकारांत-औकारांत ही पाये जाते हैं । इन शुद्ध रूप तथा स्वार्थे क-वाले रूपों से उद्भूत रूपों के बीज हमें हेमचन्द्र तक में मिल जाते हैं और कई स्थानों पर इनके दुहरे रूप एक साथ एक ही भाषा में मिल भी जाते हैं। यद्यपि घोटक जैसे शब्दों से उद्भूत रूपों में गुजराती-राजस्थानी तथा ब्रज-खड़ी बोली ने केवल सबल रूपों को ही सुरक्षित रक्खा है, पूरबी हिंदी में इनके निर्बल रूप भी मिल जाते हैं ।
सं० घोटकः, गुज० रा० घोड़ो, ब्रज० घोड़ा, राजस्थानी से प्रभावित रूप घोडो-घोडौ, खड़ी बोली घोड़ा, अवधी घोड़।
१. Bhayani : Sandesarasaka (Study) 8 33 C. p. 14 २. Chatterjea : Varmaratnakaras 18 p. xliii ३. डा० तिवारी : हिंदी भाषा का उद्गम और विकास पृ० २४२
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