Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् की पुरानी पश्चिमी हिन्दी जासु (१.८२<जस्सु), तासु १.८२८ तस्सु), भणीजे (१.१००<भणिज्जइ), कहीजे (१.१००<कहिज्जइ), पभणीजे (१.१०४<पभणिज्जइ), धरीजे (१.१०४<धरिज्जइ), दीसा (१.१२३<दिस्स-दिस्सइ), लाख (१.१५७< लक्ख), तीणि (१.१२५<तिण्णि), दीजे (२.१४३<दिज्जइ), करीजे (२.१४३<करिज्जइ) आछे (२.१४४<अच्छइ<ऋच्छति), दीसए (२.२६२<दिस्सए-दिस्सइ), दीसइ (२.१९६, २.१९७<दिस्सइ), ठवीजे (२.२०२<ठविज्जइ), णीसंक (१.७२< निस्संक)।
किन्तु कुछ ऐसे भी निदर्शन मिलते हैं, जहाँ व्यञ्जन द्वित्व का तो सरलीकरण कर दिया गया है, किंतु पूर्ववर्ती स्वर को दीर्घ नहीं किया गया । न० भा० आ० में ऐसे कई तद्भव शब्द हैं, जहाँ दीर्धीकरण नहीं पाया गया । उदा० हिंदी सच, सब, रा० मणस (<मनुष्य) जैसे शब्दों में *साच (हि० वै० साँच), *साब, *मणास जैसे रूप नहीं मिलते। डा० चाटुा ने बताया है कि न० भा० आ० में कई शब्दों में व्यञ्जन द्वित्व के सरलीकरण के बाद भी पूर्ववर्ती 'अ' ध्वनि का दीर्धीकरण न पाया जाना ध्वनि-संबंधी समस्या है। प्रायः इन सभी भाषाओं में ऐसे व्यंजनों का सरलीकरण कर या तो पूर्ववर्ती स्वर को दीर्घ बना दिया जाता है। किंतु लखKलक्ष (प्रा० लक्ख), रति<रक्तिका (प्रा० रत्तिआ, अप० रत्तिअ), सब<सर्व (सव्व, सव्वु) जैसे रूप इस नियम की अवहेलना करते दिखाई देते हैं । डा० चाटुा का अनुमान है कि पंजाबी की विभाषाओं में व्यंजन द्वित्व के पूर्व के स्वर को दीर्घ बना देने की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती, अतः संभवतः हिंदी पर यह उसका ही प्रभाव हो । अथवा यह भी हो सकता है कि इसमें बलाघात का प्रभाव हो । सं० सर्व का म० भा० आ० रूप सर्वत्र 'सव्व, सव्वु' (वै० रू० सब्ब, सब्बु) पाया जाता है। उच्चारण में यह शब्द प्रायः 'सब्ब-जण', 'सब्ब-काल', 'सब्ब-देस' जैसे समासांत पदों में पाया जाता था, अतः संभव है, इसके आद्य अक्षर पर बलाघात लुप्त हो गया हो। इसके परिणाम रूप समासांत पदों में इसका उच्चारण केवल 'सब' चल पड़ा हो । म० भा० आ० का यही उच्चारण प्रवृत्ति न० भा० आ० में भी आ गई जान पड़ती है। प्रा० पै० में भी ऐसे रूप मिलते हैं, जिनमें कुछ ऐसे भी हैं, जहाँ पूर्ववर्ती स्वर का दीर्धीकरण न करना छन्दोनिर्वाहजनित जान पड़ता है। कतिपय निदर्शन निम्न
वखाणिओ (२.१९६ < वक्खाणिओ) । जुझंता (२.१८३ < जुझंता)। णचंता (२.१८३ < णच्चंता) । णिसास (२.१३४ < णिस्सास) । सब (२.२१४, १.२०२, २.१३७ < सव्व) । लख (१.१५७ < लक्ख < लक्ष )। णचइ (१.१६६ < णच्चइ) । विजुरि (१.१६६ < विज्जुरि); हि० बिजली, ब्रज बिजुरी ।
उपर्युक्त विशेषतायें ब्रजभाषा और राजस्थानी में भी पाई जाती है, तथा प्रा० पैं० की ब्रजभाषानिष्ठ विशेषताओं का संकेत कर सकती हैं।
३६. अनुस्वार का ह्रस्वीकरण या अनुनासिकीकरण ब्रजभाषा काव्य में बहुत पाया जाता है। इसका कारण या तो छन्दोनुरोध है या बलाघात का स्थान-परिवर्तन । इसका संकेत हम पहले कर चुके हैं। प्रा० पै० में ऐसे स्थल बहुत कम मिलते हैं :-सँतार (१.९<संतार), (सँजुत्ते (१.९२<संजुत्ते) । १.११७ पर 'पचतालिसह' पाठ को K (B), K (C) प्रतियों ने 'पाँचतालीसह' संकेतित किया है। अन्य हस्तलेखों में यहाँ अनुस्वार नहीं मिलता, अतः इसका संभवतः नासिक्यतत्त्व रहित उच्चारण भी पाया जाता है, जैसे 'पचपन' (हिंदी) में । प्रायः समासांत पदों में 'पंच' के नासिक्य-तत्त्व का लोप हो जाता है। अन्यथा यहाँ भी 'पँचतालीसह पाठ मानकर अनुस्वार का अनुनासिकीकरण माना जा सकता है। १.१०८ में 'चंडेसर' पाठ है, यहाँ छन्दःसुविधा के लिये एक मात्रा कम करनी पड़ती है। इसके दो तरह से उच्चारण किये जा
१. Chatterjea : O.D.B.L.8 58 (iii) p. 318 २. ibid p. 319 ३. दे० अनुशीलन पृ. ८५
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