Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text
________________
ध्वनि-विचार
४२१
किया है कि उत्तरी हस्तलेखों में प्रायः इन्हें इ-उ के रूप में लिखा जाता है। डा० याकोबी ने भी इस बात का उल्लेख 'भविसत्तकहा' की भूमिका में किया है। प्राकृतपैंगलम् में ह्रस्व ए-ओ का दो तरह का रूप दिखाई देता है, एक व्याकरणगत रूप, दूसरा छन्दःसुविधा के लिए ह्रस्वीकृत रूप । ऐ-ओ के इस वैकल्पिक रूप का संकेत इस पद्य में मिलता है :
'इहिकारा बिंदुजुआ एओ सुद्धा अ वण्णमिलिआ वि लहू ।
रहवंजगसंजोए परे अंसेसं वि होइ सविहासं ॥' (प्रा० पैं० १.५) । ए-ओ का लिपीकृत रूप दो तरह का देखा जाता है । कतिपय हस्तलेखों में इसका ए-ओ रूप मिलता है, कतिपय में इ-उ । इ-उ वाला रूप किसी एक हस्तलेख की नियत विशेषता नहीं है। कतिपय निदर्शन ये हैं ।
देइ (१.४२)-C. D. देइ K. दइ ।। ऐम (१.८५)-A. B.C. K. एम D. इणि । अंतेक्ककल (१.८५) D. अन्तिक्कल । ऐअदह (१.८६)-A. C. एअदह D. इहदह । एम (१.१४८)-C. N. इम ।
मैंने संयुक्त व्यञ्जन के पूर्ववर्ती ऐ-ओ के उच्चारण को सर्वत्र विवृत माना है, यथा-पक्खहि (१.६७), गण्हइ (१.६७), ठल्लि (१.१०६), आत्था आत्थी (१.१४५) । वैसे इन स्थानों में ये एकमात्रिक न होकर द्विमात्रिक ही हैं। इसके अतिरिक्त जहाँ छन्दोनिर्वाहार्थ इनका ह्रस्वत्व अपेक्षित था, मैंने इन्हें विवृत चिह्नित किया है इस संबंध में इतना कह दिया जाय कि केवल निर्णयसागर संस्करण में ही इन परवर्ती स्थलों पर ह्रस्व ऐ-आ चिह्नित किया गया है ।
प्राकृतपैंगलम् की भाषा में 'ऐ-औ' ध्वनियाँ नहीं पाई जातीं, किन्तु इनके लिपिसंकेत कतिपय हस्तलेखों में मिलते हैं । C हस्तलेख में कहीं शुद्ध ए का 'ऐ' लिखा मिलता है। इसके अतिरिक्त A तथा B हस्तलेख में 'अइ' 'अउ' जैसे व्यक्षर स्वरों को 'ऐ' 'औ' लिखा मिलता है। साथ ही कतिपय रूपों में निर्णयसागर में भी यह प्रभाव तत्सम शब्दों का है। इनके कतिपय निदर्शन ये हैं :
गोरी (१.३)-N. गौरी । यभा (१.३३)-A. D. N. यभौ, C. जभौ । ले (१.४८)-A. लै । गाव (१.४८), पावइ (१.४८)-C. गावै, पावै । चउसट्ठि (१.५१)-A. B. चौसट्ठि । वइर (१.१९३)-A. वैर, B. वैरि । तेलंगा (१.१९८)-N. तैलंगा ।
इस प्रसंग को समाप्त करने के पूर्व हस्तलेखों की एक दो अन्य विशेषताओं का भी संकेत कर दिया जाय । हस्तलेखों में 'ओ' के लिए भिन्न चिह्न मिलता है । D हस्तलेख में 'उ' पर एक खड़ी लकीर खींचकर इसका चिह्न बनाया गया है जब कि अन्य हस्तलेखों में यह चिह्न 'ल' से मिलता जुलता है। इसके अतिरिक्त 'च्छ' एवं 'त्थ' के लिए प्रायः एकसे ही लिपिसंकेत का प्रयोग किया गया है, जिसे प्रसंगवश कहीं 'च्छ' तथा कहीं 'त्थ' समझना पड़ेगा। कुछ हस्तलेखों में 'ऋ' लिपिसंकेत देखा गया है, जो 'ऋद्धि' शब्द में मिलता है, अन्यत्र 'रिद्धि' रूप मिलता है। वस्तुतः प्रा० पैं की भाषा में 'ऋ' का अस्तित्व नहीं है, यह संस्कृत प्रभाव है कि यहाँ 'ऋद्धि' लिखा मिलता है।
प्राकृतपैंगलम् में ह्रस्व स्वरों का सानुनासिक तथा सानुस्वार रूप भी मिलता है, तथा ण्ह, म्ह ध्वनियाँ भी पाई जाती हैं। प्राकृतपैंगलम् के समय की कथ्य भाषा के उच्चरित रूप में न तथा न्ह ध्वनियाँ भी अवश्य थीं, किंतु हस्तलेखों
8. Tagare : Historical Grammar of Apabhramsa $ 15. p. 39
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org