Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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२.१६९] वर्णवृत्तम्
[१४७ स्थान में पदाति (जगण) हो, तथा चरण में २४ मात्रा हों, जिसके अंत में सुंदर तथा श्रेष्ठ हार (गुरु) हो, (यहाँ) आठ (अक्षर) गंध (लघु) होते हैं, यह प्रसिद्ध नाराच छंद कहा जाता है ।
(नाराच:-15 | 5 5। 5 । ऽ । ऽ । ऽ । ऽ=१६ अक्षर, २४ मात्रा) । टिप्पणी-दोसए (दृश्यते), वट्टए (वर्तते), अपवाद रूप आत्मनेपदी (छन्दोनिर्वाहार्थ प्रयुक्त) । पलंत-टीकाकारों ने इसे 'पतंति' के द्वारा अनूदित किया है; वस्तुतः यह 'पतन्' है, वर्तमानकालिक कृदंत रूप।
जहा,
चलंत जोह मत्त कोह रणकम्मअग्गरा, किवाण बाण सल्ल भल्ल चाव चक्क मुग्गरा । पहारवारधीर वीरवग्ग मज्झ पंडिआ पअट्ठ आट्ठ कंत दंत तेण सेण मंडिआ ॥१६९॥
निाराच] १६९. उदाहरण:सेनाप्रयाण का वर्णन है :
कृपाण, बाण, शल्य, भाले, चाप, चक्र और मुद्गर के साथ क्रोध से मत्त रणकर्म में दक्ष, योद्धा चल रहे हैं; (ये वीर) शत्रु के प्रहार को रोकने में धीर तथा वीरों के वर्ग में पंडित हैं; (इन्होंने अपने ओठ दाँतों से काट रक्खे हैं,ऐसे योद्धाओं के चलने से सेना सुशोभित हुई है।
टिप्पणी-चलंत < चलन्तः, वर्तमानकालिक कृदंत कर्ता ब० व० ।
मत्त कोह-टीकाकारों ने इसे 'क्रोधमत्ताः' समस्त पद माना है; संभवत: यह 'समासे पूर्वनिपातानियमात्' का प्रभाव है। मेरी समझ में मत्त तथा कोह अलग अलग शब्द हैं, मैं इनका संस्कृत अनुवाद 'मत्ताः क्रोधेन' करना ठीक समझता हूँ, एक में कर्ता ब० व० में प्रातिपदिक का प्रयोग है, अन्यत्र करण ए० व० में ।
पअट्ठ < प्रदष्ट, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप । सेण < सेना, (स्त्रीलिंग अकारांत शब्द) । मंडिआ < मंडिता; कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत स्त्रीलिंग । नील]
णीलसरूअ विआणहु मत्तह बाइसही, पंचउ भग्गण पाअ पआसिअ एरिसही। . ___ अंत ठिआ जहि हार मुणिज्जइ हे रमणी, बावण अग्गल तिण्ण सआ धुअ मत्त मुणी ॥१७०॥
१७०. हे सुन्दरि, नील छंद के स्वरूप को जानो, (यहाँ) बाईस मात्रा होती हैं, तथा इस प्रकार (प्रत्येक) चरण में पाँच भगण प्रकाशित हों; पदांत में हार (गुरु) समझा जाय, तथा (चार छंद या सोलह चरणों में) बावन अधिक तीन सौ मात्रा समझी जायें।
(नील:-5||5||5||5||5||5%१६ अक्षर, २२ मात्रा) [सम्पूर्ण छंद की मात्रा ३५२:४८८ मात्रा (२२४४)] । टिप्पणी-विआणहु-वि+Vआण (= जाण)+हु आज्ञा । म० पु० ब० व० । मत्तह < मात्राः, 'ह' मूलतः संबंध ए० व० का प्रत्यय है, जो कर्ता ब० व० में भी प्रयुक्त होने लगा है; दे० भूमिका । पआसिअ < प्रकाशिताः, ठिआ (=ठिअ) L स्थितः (छंदोनिर्वाहार्थ पदांत 'अ' का दीर्धीकरण)। मुणिज्जइ < मन्यते, कर्मवाच्य रूप ।
बावण < द्वापञ्चाशत् > बावण्णं > बावण (हि० रा० बावन) । (पञ्चाशत् के म० भा० आ० में 'पण्णं', 'वण्णं' दो रूप मिलते हैं, दे० पिशेल ६ २७३, ४४५) । १६९. मत्त कोह-C. N. सत्तुखोह । रण-C. O. वम्म । सल्ल-C. सेल्ल । चाव-C. चाप । पहार... ...-N पहारघोरमारुधारग्गवग्गपण्डिआ । पअट्ठ-0. पलट्ट । कंत दंत-N. दन्त दट्ठ, C. दत्त दत्त । १७०. णीलसरूअ-A. B. N. णीलसरूअ, C. K. लील विसेस, 0. णीलविसेस । बाइसही-C. वे विसही। पंच-N. पञ्च । बावण-C. वामण । धुअA. B. धुव । मुणी-0. कही।
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