Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् उपासरों में श्रावकों के गाने के लिये जिन काव्यों का निबंधन किया जाता था उनकी भाषा यथासंभव जनता की भाषा के समीप रखी जाती थी ।"१
लेकिन जैन कवियों से इतर सामंती कवि जिस भाषाशैली को अपना रहे थे, वह जहाँ एक ओर व्याकरणिक दृष्टि से परिनिष्ठित अपभ्रंश को बहुत पीछे छोड़ चुकी थी, वहाँ ओजोगुण लाने के लिये या मात्रिक कमी पूरी करने के लिये अपभ्रंश की व्यंजन द्वित्व वाली शैली को पकड़े हुए थी। इतना ही नहीं, भाषा की व्याकरणिक शुद्धता की ओर उनका खास ध्यान न था, वे एक साथ सविभक्तिक तथा निविभक्तिक रूपों, द्वित्व व्यञ्जन वाले रूपों तथा देश्य भाषा के सरलीकृत रूपों का प्रयोग करते देखे जाते हैं। इतना ही नहीं, उनकी रचनाओं में कभी कभी एक साथ ऐसे भी व्याकरणिक रूप मिल जाते हैं, जो अब गुजराती, राजस्थानी, व्रज, यहाँ तक कि मैथिली जैसी विभिन्न तत्तत् भाषाओं
की भेदक विशेषतायें बन बैठे हैं । इन कृतियों में आपको 'जिणि' जैसे गुजराती रूपों के साथ 'मुअल', 'सहब' जैसे बिहारी रूप भी मिल जाते हैं। साथ ही शब्द-समूह की दृष्टि से भी 'खुल्लणा' जैसे पुरानी राजस्थानी शब्दों के साथ 'लोर' जैसे पूरबी विभाषाओं के शब्द भी मिलते हैं। यह तथ्य इस बात का संकेत करता है कि सामंती कवियों या भाटों चारणों के द्वारा इस जमाने में एक ऐसी काव्य-शैली का प्रयोग किया जा रहा था, जो अपभ्रंश की गूंज को किसी तरह पकड़े हुए थी, किंतु जिसमें विभिन्न वैभाषिक तत्त्वों की छौंक भी डाल दी गई थी। इस कृत्रिम साहित्यिक शैली का मूल आधार निश्चित रूप में अरावली पर्वत के पश्चिम से लेकर दोआब तक की कथ्य भाषा रही होगी, जो स्वयं पूरबी राजस्थानी, ब्रज, कन्नौजी जैसी वैभाषिक विशेषताओं से अन्तर्गर्भ थी । प्राकृतपैंगलम् के लक्षणोदाहरण भाग की भाषा इसी मिलीजुली शैली का परिचय देती है। श्रीनरूला ने इस तथ्य को बखूबी पहचानते हुए संकेत किया है :
"उनकी भाषा साधारणतया मिली-जुली थी और आम बोलचाल की नहीं होती थी तथा प्रायः एक राजदरबार से दूसरे तक बदलती रहती थी, क्योंकि जब वे चारण एक राजदरबार से दूसरे में जाते तो उन्हीं वीरगाथाओं और चारणकाव्यों में शब्द तथा भाषा का हेरफेर करते जाते, वही काव्य नये सामंत की स्तुति के काम आ जाता और उसके दरबार के जीवित या मृत वीरों के नामों का उसमें समावेश कर दिया जाता । ये भाट एक दरबार से दूसरे दरबार में आया जाया करते थे और निकटवर्ती राजदरबारों में समझी जाने वाली मिश्रित भाषा का प्रयोग करते थे।"२
मध्यप्रदेश में प्रचलित इस कृत्रिम साहित्यिक शैली की तरह पिछले दिनों राजस्थान के राजदरबारों में एक अन्य कृत्रिम साहित्यिक शैली भी चल पड़ी थी, जो वहाँ चारण जाति के कवियों के हाथों पाली पोसी गई । डिंगल, जिसे कुछ लोग गलती से मारवाड़ी का पर्यायवाची समझ लेते हैं, चारणों की साहित्यिक शैली मात्र है। 'बेलि किसन रुकमणी री' जैसी डिंगल कृतियों की भाषा कथ्य राजस्थानी (मारवाड़ी) के तत्कालीन रूप से ठीक उतनी ही दूर है जितनी प्राकृतपैंगलम् के पद्यों की भाषा बोलचाल की तत्सामयिक ब्रज से ।
२८. प्राकृतपैंगलम् की भाषा के इसी मिलेजुलेपन ने इस विषय में विभिन्न मतों को जन्म दे दिया है कि 'प्राकृतपैंगलम्' की भाषा को कौनसी संज्ञा दी जाय । जहाँ इस ग्रन्थ का शीर्षक इसकी भाषा को 'प्राकृत' संकेतित करता है, वहाँ इसके टीकाकार इसे कभी 'अपभ्रंश' तो कभी 'अवहट्ठ' कहते हैं । डा० याकोबी ने 'प्राकृतपैगलम्' की भाषा को पूरबी अपभ्रंश का परवर्ती रूप घोषित किया है, और संभवतः इसी सूत्र को पकड़कर श्री बिनयचन्द्र मजूमदार ने इसमें पुरानी बँगला के बीज ढूँढ निकाले हैं । डा० टेसिटोरी 'प्राकृतपैंगलम्' की भाषा को पुरानी पूरबी राजस्थानी मानने का संकेत करते हैं, तो डा० चाटुा इसे स्पष्टतः मध्यदेशीय शौरसेनी अवहट्ठ मानते हैं । जैसा कि हम देखेंगे 'प्राकृतपैंगलम्' की भाषा उस भाषा-स्थिति का संकेत करती है, जिसके मूल को एक साथ पुरानी पूरबी राजस्थानी और पुरानी ब्रज कहा जा सकता है। इसीलिये मैंने इसके लिये 'पुरानी पश्चिमी हिन्दी' नामकरण अधिक उपयुक्त समझा है जिसकी साहित्यिक शैली को पुरातन-प्रियता के कारण 'अवहट्ठ' भी कहा जा सकता है । उक्त नामकरण इस बात का संकेत कर सकता है कि 'प्राकृतपैंगलम्' में पूरबी राजस्थानी के तत्त्वों के अलावा ब्रज तथा खड़ी बोली के तत्त्व भी हैं।
१. डा० भोलाशंकर व्यास : हि० सा० बृ० पृ० ३९८-९९. २. शमशेरसिंह नरूला : हिदी और प्रादेशिक भाषाओं का वैज्ञानिक इतिहास पृ० ७८ ।
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