Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 427
________________ ४०२ प्राकृतपैंगलम् कहना न होगा, प्रा० पैं० की रचनायें कीर्तिलता की इसी परंपरा की पूर्वज हैं तथा इन्हें इस आधार पर 'अवहट्ठ' भी कहा जा सकता है। क्या प्राकृतपैंगलम् की भाषा पूरबी अवहट्ट है ? ३०. जैसा कि हम संकेत पर चुके हैं कि डा० याकोबी ने प्रा० पैं० की भाषा को पूरबी अवहट्ठ घोषित किया था ।' डा० याकोबी के तर्कों का संकेत तथा खण्डन हम अनुशीलन के पृ० ११-१२ पर कर चुके हैं । संभवतः डा० याकोबी के संकेत पर श्री बिनयचन्द्र मजूमदार ने भी प्राकृतपैंगलम् की भाषा को पूरबी भाषा घोषित कर उसका संबंध बँगला और उडिया की पूर्ववर्ती गौडीय भाषा से जोड़ दिया है। हम यहाँ श्री मजूमदार के तथ्यों का परीक्षण करना आवश्यक समझेंगे । पहले हम यह समझ लें कि श्री मजूमदार ने प्रा० पैं० की भाषा को अवहट्ट नहीं कहा है। वे इसे सामान्य संज्ञा-पूर्वी मागधी (Eastern Magadhi)-से ही अभिहित करते हैं। (१) प्राकृतपैंगलम् की भाषा में बँगला और उड़िया के पूर्व रूप पाये जाते हैं । श्री बिनयचन्द्र मजूमदार ने इस स्थापना के लिये जिन प्रमाणों को उपन्यस्त किया है, वे स्वत:विरोधी प्रमाण हैं, उनमें से अधिकांश प्रमाण ऐसे हैं, जो प्रा० पैं० की भाषा को पुरानी पश्चिमी हिन्दी या पुरानी ब्रज सिद्ध करते हैं। अत: उनकी इस स्थापना की निःसारता स्वत:सिद्ध है। (२) 'जइ दीहो विअ वण्णो' आदि नियम के उदाहरण भाग के रूप में उद्धृत निम्न पद्य को लेकर श्री मजूमदार ने घोषित किया है कि यद्यपि इसमें हिंदी काव्य-परम्परा का छंद (दोहा) प्रयुक्त है, किंतु कई ऐसे व्याकरणिक रूप पाये जाते हैं, जो पछाँ ही हिंदी के लिये अपरिचित हैं, जब कि ये रूप परवर्ती पूरबी मागधी में प्रचलित थे जो निस्संदेह बँगला से घनिष्ठता संबद्ध थी। प्रस्तुत विवादग्रस्त पद्य यह है : ___अरेरे वाहहि काण्ह नाव छोडि डगमग कुगति न देहि । ___तह इत्थि णइहि सँतार देइ जो चाहहि सो लेहि ।। श्री मजूमदार ने 'तइ' को पूर्णतः पूरबी मागधी रूप मान लिया है, क्योंकि यह पुरानी बँगला में तथा आधुनिक असमिया में उपलब्ध है। किंतु पश्चिमी हिंदी में 'तह-तइँ का सर्वथा अभाव नहीं है। यद्यपि गुजराती राजस्थानी में इसके तू-तूं-थू जैसे रूप मिलते हैं, किंतु 'तइ-तइँ जो मूलतः करण ए० व० (त्वया) का रूप है 'तै-तै' के रूप में ब्रजभाषा में भी उपलब्ध है। इस रूप का संकेत करते हुए डा० धीरेंद्र वर्मा लिखते हैं : "ते साधारणतया करण कारक में प्रयुक्त होता है और १६वीं तथा १७वीं शती के लेखकों में अधिक मिलता है-तें बहतै निधि पाई (सूर० म० ११) । 'तै' कदाचित् प्रतिलिपिकार अथवा प्रफ संशोधक की असा बहुत थोड़े से स्थलों पर 'ते' के स्थान पर देखा जाता है (मति० ११) । 'ते' करण तथा कर्ता कारक में बहुत प्रचलित है : 'क्यों राखी...' (नन्द० ३-४), मेरे ते ही सरबसु है (सेना० १७) । गोकुलनाथ में 'तैंने' परसर्ग के साथ करण कारक में प्रयुक्त हुआ है। मिलाइये आधु० ब्रज (6) : तेने श्री गुसाईं जी को अपराध कियो है।"५ स्पष्ट है, 'तइ-तइँ' को गौडीय भाषावर्ग तक सीमित रखना वैज्ञानिक नहीं है। उलटे यह निदर्शन प्रा० पैं० की भाषा को पुरानी पश्चिमी हिंदी या पुरानी ब्रज सिद्ध करने में एक प्रमाण के रूप में पेश किया जा सकता है । इसी पद्य में 'देइ' पूर्वकालिक रूप को भी वे पुरानी बँगला तथा आधुनिक उड़िया का समानांतर रूप मानते हैं; किंतु हम पश्चिमी भाषावर्ग से इसके समानांतर उदाहरण दे सकते हैं । टेसिटोरी ने दि धातु के समान ही Vले के पूर्वकालिक रूप 'लेई' (प० योग ४ । २५, आदिय०) का संकेत किया है। अन्य उदाहरण ये हैं :-'पाटीए पग देई १. Jacobi : Introduction to Sanatkumarcaritam $5. (Eng. Trans.) २. B. Majumdar : The History of Bengali Language. Lecture xii pp. 248-56. 3. The metre is no doubt Hindi; but there are many forms which are foriegn to Western Hindi, and which prevailed only in a comparatively recent time in Eastern Magadhi, which is undeniably very closely allied to Bengali. - ibid. p. 250 ४. Kellogg : Hindi Grammar Table IX. ५. डा० वर्माः ब्रजभाषा $ १६३. पृ० ६६ । ६. Tessitori : O. W. R.8 131 (2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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