Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् में भी इसका प्रयोग किया है :-'सो धणि विर है जरि मुई तेहि क धुआँ हम लाग' । अत: इस पद्य की भाषा के विषय में यह कहना कि 'यह नि:संदेह पूरबी मागधी ही नहीं, पुरानी बँगला है', कहाँ तक उचित है ?
(३) निम्न पद्य के 'काइँतथा 'छइल' शब्दों का अस्तित्व उड़िया भाषा में पाकर इसे भी पूरबी मागधी के प्रमाण के लिये जुटा लिया गया है :-"
रे धणि मत्त मतंगअ गामिणि, खंजण लोअणि चंदमुहि ।
चंचल जोव्वण जात न जाणहि, छइल समप्पहि काई णाहि । __ कहना न होगा, 'काइँ' (कानि) हेमचन्द्र के बाद भी गुजराती-राजस्थानी में पाया जाता है । देखिये-"पाद्रि थिका ऊसरीया राउत, कांई न लाधउ लाग" (कान्हडदेप्रबंध १.८४) । 'थे काइँ करो छो' (तुम क्या करते हो) आज भी
जाता है। 'छइल' का 'छैल-छैला' रूप पश्चिमी हिंदी की प्रायः सभी विभाषाओं में प्रचलित है। मिलाइये
मोहसों तजि मोह दृग, चले लागि वहि गैल ।
छिनक छ्वाय छबि गुरु डरी, छले छबीले छैल ॥ (बिहारी) (४) 'नवमंजरी सज्जिअ चूअह गाछे' का 'गाछ' शब्द वृक्ष के अर्थ में बँगला में तथा 'गछ' के रूप में उड़िया और मैथिली में मिलता है। किंतु यह शब्द ठीक इसी अर्थ में राजस्थानी की भी कुछ बोलियों यथा शेखावाटी की बोली में पाया जाता है।
(५) 'जिणि कंस विणासिअ कित्ति पआसिअ' इत्यादि पद्य पर न केवल गीतगोविन्द का प्रभाव माना गया है, अपितु इसकी भाषा को भी पुरानी बँगला सिद्ध करने की चेष्टा की गई है। 'जिणि' को मजूमदार साहब ने शुद्ध बँगला रूप माना है, किन्तु यह रूप राजस्थानी-गुजराती में भी तो मिलता है
जिणि यमुनाजल गाहीउं, जिणि नाथीउ भूयंग । (कान्हडदेप्रबंध १.३) (६) इसी तरह 'लिज्जिअ', 'दिज्जइ' जैसे कर्मवाच्य रूपों को भी पुरानी बँगला के रूप मानना ठीक नहीं है। वस्तुतः ये रूप पुरानी पश्चिमी राजस्थानी के 'लीजइ', 'दिजइ-दीजई', 'कीजइ' जैसे रूपों के प्राग्भाव हैं ।
स्पष्ट है, प्रा० पैं. की भाषा में ऐसे कोई ठोस चिह्न नहीं मिलते, जो इसे पूरबी अवहट्ट या पुरानी बँगला तो क्या पुरानी पूरबी हिन्दी तक घोषित कर सकते हों । यह भाषा स्पष्टतः पुरानी पश्चिमी हिन्दी है।
३१. डा० सुनीतिकुमार चाटुा ने परवर्ती शौरसेनी अपभ्रंश का जिक्र करते समय प्राकृतपैंगलम् की 'अवहट्ठ' का संकेत किया है। पश्चिमी अपभ्रंश या शौरसेनी अपभ्रंश ९ वीं शती से १२ वीं शती तक गुजरात और पश्चिमी पंजाब से लेकर बंगाल तक की 'साधु भाषा' बन बैठी थी और इस काल के 'भाटों' को संस्कृत तथा प्राकृत के साथ साथ इस भाषा को भी सीखना पड़ता था तथा वे इसीमें काव्यरचना करते थे। "इसी शौरसेनी अपभ्रंश का परवर्ती रूप जो वस्तुतः १००० ई० से पूर्व की वास्तविक अपभ्रंश तथा १५वीं शती के मध्य हिंदी युग की ब्रजभाषा के बीच की कड़ी है, कभी कभी 'अवहट्ठ' कहलाती है। 'प्राकृतपैंगलम्' इसी अवहट्ट भाषा के पद्यों का संग्रह है। राजपूताना में अवहट्ठ 'पिंगल' के नाम से भी प्रसिद्ध थी और वहाँ के भट्ट कवि 'पिंगल' में रचना करते थे जो कृत्रिम साहित्यिक शैली थी, इसके साथ साथ वे 'डिंगल' या राजस्थानी बोलियों में भी रचना करते थे।"३
उक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि डा० चाटुा यद्यपि प्रा० पैं. की भाषा को स्पष्टतः पुरानी ब्रजभाषा नहीं कहते, किंतु वे इसे ब्रज के पुराने रूप की प्रतिनिधि मानने के पक्ष में हैं। श्री बिनयचन्द्र मजूमदार के द्वारा प्राकृतपैंगलम् के उदाहरणों को पुरानी बँगला मानने की धारणा का खण्डन डा० चाटुा ने भी किया है, किंतु उनका मत है कि ये पद्य खास तौर पर जहाँ तक उनकी छन्दोगति का सवाल है, मूल रूप में पुरानी बँगला के रहे होंगे; और बंगाल से पश्चिमी भारत में जाने 8. Thus it is doubtless that the language of the text is not only Eastern Magadhi, but is proto
Bengali.-ibid., p. 253 २. Tessitori : 0. W. R. $ 137 3. Dr. Catterjea : Origin & Development of Bengali Language vol. I (Intro.). $ 61, p. 113-14
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